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________________ 300 साध्वी मोक्षरत्ना श्री हेतु शुभ नक्षत्र कौन-कौन से हैं, और कौन-कौन से नक्षत्र अशुभ हैं - इसका उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् दिग्द्वार, दिशाशूल, नक्षत्रशूल, किल, योगिनीवास, सम्मुख चन्द्रमा, रविविचार, पाशकाल, वत्स, शुक्राचार आदि ज्योतिष सम्बन्धी विषयों की विस्तृत चर्चा की गई है । तदनन्तर यह कहा गया है कि मुनि को तिथि, वार, लग्न, नक्षत्र, चन्द्रबल आदि को देखकर अनुकूल शकुन होने पर विहार करना चाहिए। मुनि को चातुर्मास के बाद पूर्णिमा के दिन विहार नहीं करना चाहिए, उससे पूर्व त्रयोदशी के दिन अवश्य विहार कर सकता है। तत्पश्चात् वसति या उपाश्रय में ठहरने हेतु मुनि को किन छः व्यक्तियों की अनुज्ञा लेनी होती है, उसका उल्लेख किया गया है। उनकी अनुज्ञा न लेने पर मुनि को अदत्तादान-व्रतभंग का दोष लगता है - यह मुनि की हेमन्तऋतु की चर्या है | मुनि की शिशिरऋतु की चर्या भी हेमन्तऋतुचर्या के सदृश ही है। शिशिरऋतु में मुनि को श्लेष्म निगलना नहीं चाहिए। अधिक मात्रा में जल भी नहीं पीना चाहिए - यह शिशिर ऋतु की चर्या है । तत्पश्चात् बसंतऋतु की चर्या का उल्लेख किया गया है। बंसतऋतु में मुनि को विभूषा का सर्वथा त्याग करना चाहिए। नीरस आहार करना चाहिए तथा अच्छे वस्त्र धारण नहीं करना चाहिए। बसंतऋतु में ब्रह्मचर्यव्रत की सुरक्षा हेतु मुनि को विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए । विशुद्धशिक्षा ग्रहण करते हुए प्रतिदिन विहार करना चाहिए, आदि । आश्विन मास और चैत्रमास - दोनों के नवरात्र के व्यतीत होने पर अस्वाध्याय के निवारण हेतु कल्पतर्पण की विधि करनी चाहिए। तदनन्तर मूलग्रन्थ में कल्पतर्पण की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है। यह बसन्तऋतु की चर्या है। मुनि को ग्रीष्मऋतु में कायोत्सर्ग में रहना चाहिए तथा सूर्यकिरणों की आतापना का सेवन करते हुए देहासक्ति का त्याग करना चाहिए। शीतल जल, शीतल स्थान एवं शीतल पेयपदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए, इत्यादि बातों का उल्लेख करते हुए मूलग्रन्थ में इस ऋतु से सम्बन्धित अन्य विधि - निषेधों का उल्लेख किया गया है। तदनन्तर वर्षाऋतु की चर्या का उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि साधुओं को कैसे स्थान पर रहना चाहिए, षटुकाय आदि जीवों की रक्षा के लिए अपनी दैनिक चर्याओं को किस प्रकार से करना चाहिए, पयूषण पर्व की आराधना किस प्रकार से करनी चाहिए, पयूर्षण में किस प्रकार से लोच करना चाहिए, लोच के कितने प्रकार है, वर्षावास से पूर्व मुनि को वस्त्रों का प्रक्षालन किस प्रकार से करना चाहिए, वर्षावास में अचित्त जल कितने समय तक प्रासुक रहता है, इत्यादि विषयों का विवेचन भी मूलग्रन्थ में किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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