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________________ 298 साध्वी मोक्षरला श्री अर्थात् साधु और साध्वियों की जो दिन-रात्रि की चर्या विधि कही गई है, वह संयम के निर्वाह तथा दुराग्रहों के निराकरण के लिए है। इस प्रकार संयम-जीवन में स्थित साधु-साध्वियों के लिए अपनी दिनचर्या का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। साधुओं की ऋतुचर्या-विधि ऋतुचर्या-विधि का स्वरूप ऋतुचर्या शब्द का तात्पर्य ऋतु विशेष में की जाने वाली क्रियाओं की आचरण विधि से है, अर्थात किन-किन ऋतुओं में मुनि को किस प्रकार से आहार-विहार आदि करना चाहिए-इसका इस विधि में वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त मुनियों को किन-किन ऋतुओं में प्रायः किन वस्त्रों का त्याग करना चाहिए तथा किन वस्त्रों को धारण करना चाहिए, विहार के लिए उपयुक्त एवं अनुपयुक्त क्षेत्र कौन-कौन से हैं, मुनि को एक स्थान पर अधिक से अधिक कितने समय तक रहना कल्प्य है, आदि-इन सब बातों का विस्तृत विवेचन इस विधि में किया गया है। विहार हेतु कौन-कौनसे वार, नक्षत्र शुभ माने गए हैं, कौनसे नक्षत्र में मुनि को किस दिशा में प्रयाण नहीं करना चाहिए, दिशाशूल, नक्षत्रशूल, योगिनीवास, पाशकाल, वत्स, शुक्राचार आदि ज्योतिष सम्बन्धी विषय का भी इस विधि में समावेश किया गया है। श्वेताम्बर-परम्परा के विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थों में आचारदिनकर ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें साधुओं की ऋतुचर्या का इतना विस्तृत उल्लेख मिलता है। यद्यपि दशवैकालिकसूत्र में भी साधुओं की ऋतुचर्या का उल्लेख मिलता है, किन्तु वह उल्लेख बहुत ही संक्षिप्त है। वर्धमानसूरि द्वारा वर्णित इस विधि में जिन-जिन विषयों का वर्णन मिलता है। उनका थोड़ा-थोड़ा वर्णन यत्र-तत्र अनेक ग्रन्थों में मिलता है, जिसकी चर्चा हम यथास्थान तुलनात्मक अध्ययन में करने का प्रयत्न करेंगे। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में हमें साधु की ऋतुचर्या के सदृश पृथक् से कोई संस्कार देखने को नहीं मिलता है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में इस विधि में वर्णित विषयों की अवश्य कुछ चर्चा मिलती है। मन में संशय हो सकता है कि साधु के लिए योगोद्ववहन, प्रायश्चित्तविधि, आवश्यकविधि आदि निर्दिष्ट करने का कुछ प्रयोजन हो सकता है, किन्तु साधुओं की ऋतुचर्याविधि बताने का यहाँ क्या प्रयोजन होगा? इस संशय का निवारण करते हुए स्वयं वर्धमानसूरि ने इस ग्रन्थ के व्यवहार-परमार्थ प्रकरण में कहा है कि साधुओं की ऋतुचर्याविधि निर्दिष्ट करने का मूल प्रयोजन कषाय एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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