SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 286 साध्वी मोक्षरत्ना श्री "प्रवर्तिनीपद के अनुज्ञार्थ" आदि शब्दों के स्थान पर "महत्तरापद के अनुज्ञार्थ" आदि शब्द बोले जाते हैं तथा भावी महत्तरा पर गुरु पाँच मुद्राओं से अभिमंत्रित वासक्षेप निक्षिप्त करते हैं। तदनन्तर लग्नबेला के आने पर गुरु महत्तरा के कन्धे पर काम्बली रखते हैं और उसके हाथ में आसन देते है। तत्पश्चात् उसी लग्नबेला में गुरु विधिपूर्वक उसके दाएँ कान में सम्पूर्ण वर्धमानविद्या तीन बार बोलते है तथा वर्धमानविद्यापट प्रदान करते हैं। तत्पश्चात् भावी महत्तरा का नामकरण कर गुरु उसे आशीर्वाद प्रदान करते हैं तथा आवश्यक करणीय कार्यों का निर्देश देते हैं। तत्पश्चात् 'नूतन महत्तरा गुरु को वंदन कर आयम्बिल के प्रत्याख्यान लेती है। तदनन्तर साध्वियाँ, श्रावक एवं श्राविका वर्ग महत्तरा को वंदन करते हैं। अन्त में महत्तरा धर्मोपदेश प्रदान करती है। विधि के अन्त में वर्धमानसूरि ने स्व एवं परगच्छ में महत्तरा-पद से सम्बन्धित प्रचलित अवधारणाओं को भी स्पष्ट किया है। स्थानाभाव के कारण उन सबकी चर्चा हम यहाँ नहीं करेंगे। एतदर्थ विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के द्वितीय भाग के उनतीसवें उदय के अनुवाद को देखा जा सकता है। तुलनात्मक विवेचन दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में महत्तरा-पद स्थापन-विधि का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थों में हमें इस विधि का उल्लेख मिलता है, जिनका तुलनात्मक अध्ययन हम यहाँ प्रस्तुत करेंगे। वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर के अतिरिक्त महत्तरापद के योग्य एवं अयोग्य साध्वी के लक्षणों का विस्तृत विवेचन श्वेताम्बर परम्परा के विधि-विधान सम्बन्धी अन्य ग्रन्थों में देखने को नहीं मिलता है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में यद्यपि गणिनी (महत्तरा) पद के योग्य आर्यिका के लक्षणों का उल्लेख मिलता है, किन्तु यह उल्लेख बहुत ही संक्षिप्त रूप में मिलता है। इस सम्बन्ध में गच्छाचार पइन्ना में मात्र इतना ही उल्लेख मिलता है कि शीलवती, सुकृत करने वाली, कुलीन और गम्भीर अंतःकरण वाली, गच्छ में मान्य आर्यिका महत्तरा-पद को प्राप्त करती है। इसके अतिरिक्त और कोई चर्चा हमें इस सम्बन्ध में वहाँ नहीं मिलती "देखेः मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, डॉ. फूलचन्द्र जैन, अध्याय-५, पृ.-४२२ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, प्रथम संस्करणः १६८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy