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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
285 इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन साध्वी-समुदाय का संचालन करने वाली साध्वी को साध्वी-प्रमुख के पद पर नियुक्त करना है। यद्यपि साध्वियाँ आचार्य के नेतृत्व में ही अपनी संयमयात्रा सम्पन्न करती हैं, किन्तु आचार्य साध्वियों के प्रत्येक कार्य की देख-रेख कर सके-यह सम्भव नहीं है, अतः उनका सम्यक् संचालन करने हेतु किसी योग्य साध्वी को महत्तरा-पद पर नियुक्त करने के प्रयोजन से यह संस्कार किया जाता है। महत्तरा का पद प्रवर्तिनी के अपेक्षा उच्च या श्रेष्ठ होता है।
यह संस्कार कब किया जाना चाहिए, अर्थात् कितनी दीक्षापर्याय वाली साध्वी को यह पद प्रदान करना चाहिए-इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख हमें आचारदिनकर में भी नहीं मिलता है, किन्तु महत्तरा-पद के योग्य साध्वी के क्या-क्या लक्षण हैं, उसका इसमें विस्तृत विवेचन मिलता है। जिस प्रकार मुनि-समुदाय में आचार्य, उपाध्याय आदि पदों पर आसीन होने के लिए योग्यताओं के साथ-साथ निश्चित दीक्षापर्याय का होना भी आवश्यक माना जाता है, उसी प्रकार का कोई निर्देश हमें प्रवर्तिनी या महत्तरा-पद के सम्बन्ध में देखने को नहीं मिलता है। संस्कारकर्ता
वर्धमानसूरि के अनुसार यह विधि आचार्य द्वारा ही करवाई जाती है। वर्तमान में यह संस्कार आचार्य की अनुपस्थिति में उनके निर्देशानुसार अन्य वरिष्ठ साध्वियों द्वारा भी किया जाता है।
आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि प्रवेदित की हैमहत्तरापद-स्थापना-विधि
इस विधि में सर्वप्रथम महत्तरा-पद के योग्य साध्वी के लक्षणों को बताया गया है। तदनन्तर यह बताया गया है कि इस विधि हेतु शुभ नक्षत्र, तिथि, वार एवं लग्न आदि आचार्य पदस्थापना विधि के समान ही देखा जाता है। इस अवसर पर अमारि घोषणा करवाना आदि सभी क्रियाएँ आचार्य-पदस्थापन-विधि के समान ही की जाती है। महत्तरापद के योग्य साध्वी लोच करके लग्नदिन के आने पर प्रभातकाल का ग्रहण करे तथा स्वाध्याय प्रस्थापन करे। महत्तरा-पदस्थापन की विधि भी प्रवर्तिनी-पदस्थापन-विधि के सदृश ही है। मात्र इतना विशेष है कि वहाँ
५७°आचारदिनकर, वर्षमानसूरिकृत, उदय- उनतीसवाँ, पृ.-१२०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१६२२.
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