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________________ 272 साध्वी मोक्षरत्ना श्री ज्ञान होना आवश्यक है। हरिभद्रसरि ने भी पंचाशक प्रकरण में कहा है"स्थविरकल्प के कर्तव्यों के पूर्ण होने के बाद ही प्रतिमाकल्प को स्वीकार करना चाहिए," इससे पहले स्थविर को प्रतिमाकल्प का सेवन करना कल्प्य नहीं है। इसके साथ हरिभद्रसूरि ने दीक्षादान के समय भी प्रतिमाकल्प स्वीकार करने का स्पष्ट निषेध किया है। उनके अनुसार अभ्युद्यतमरण (समाधिमरण) और प्रतिमाकल्प-इन दो में से किसी एक को स्वीकार करने की इच्छा वाला गणि गुण और स्वलब्धि से युक्त साधु भी कल्प आदि को स्वीकार करते समय भी सर्वप्रथम दीक्षा लेने आने वाले योग्य जीव को दीक्षा दे। जो गणि गुण और स्वलब्धि से युक्त न हो, तो भी यदि लब्धियुक्त आचार्य की निश्रा वाला हो, तो सर्वप्रथम दीक्षा दें, उसके पश्चात् प्रतिमाकल्प आदि को धारण करे। संक्षेप में स्थविर को गच्छ के प्रति पूर्ण कर्तव्यों का निर्वाह करके ही प्रतिमाओं का वहन करना चाहिए। संस्कार का कर्ता यह संस्कार किसके द्वारा करवाया जाता है-यह तो कहना संभव नहीं है, क्योंकि इस विधान में योगोद्वहन, वाचनाग्रहण आदि के सदृश कोई विशेष क्रिया नहीं होती है। अतः प्रतिमा को मुनि स्वयं ही धारण करता है, किन्तु इस हेतु गुरु की आज्ञा अवश्य लेता है। प्रतिमाओं का उद्वहन एवं उनसे सम्बन्धित आचारों का पालन तो स्वयं ही करना होता है। आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि प्ररूपित की हैयतियों की बारह प्रतिमाओं की उद्ववहन-विधि इस विधि में वर्धमानसूरि ने भिक्षुक की बारह प्रतिमाओं का नामोल्लेख करते हुए प्रतिमाओं के उद्वहन के योग्य मुनि के लक्षणों का निरूपण किया है। तदनन्तर प्रतिमाओं के उद्वहन की सामान्यचर्या में गच्छ का परित्याग करके साधुओं, पुस्तकों, पात्रों, वस्त्रों, और वसति आदि में निर्ममत्व भाव रखने का उल्लेख मूलग्रन्थ में हुआ है। इसके बाद प्रतिमा के प्रारम्भ करने के सम्बन्ध में समुचित तिथि, नक्षत्र, वार आदि विचार किया गया है। पहली प्रतिमा एक मास की होती है। इसमें मुनि आहार तथा पानी की एक-एक दत्ति लेता है। फिर दूसरी प्रतिमा से लेकर छठवीं प्रतिमा तक एक-एक दत्ति और एक-एक मास की उत्तरोत्तर वृद्धि की जाती है। सातवीं प्रतिमा में 'पंचाशक प्रकरण, अनु.- दीनानाथ शर्मा, प्रकरण- अठारहवाँ, प्र.-३२३-२४, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण : १६६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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