SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 271 तात्पर्य एक विशेषार्थ में लिया गया है। जैन-परम्परा में प्रतिमा शब्द का तात्पर्य प्रतिज्ञा, नियम या अभिग्रह से लिया गया है। वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरि ने भी स्थानांगसूत्र की वृत्ति में प्रतिमा को इसी अर्थ में ग्रहण किया है। हरिभद्रसूरि के अनुसार प्रतिमाएँ विशिष्ट क्रिया वाले साधु का प्रशस्त्र अध्यवसायरूपी शरीर है। विशिष्ट क्रिया वाले शरीर से तथाविध गुणों का योग होता है, जिनके कारण प्रतिमाधारी साधु अन्य साधुओं की अपेक्षा प्रधान हो जाते हैं। इसे सूचित करने के लिए शुभभावयुक्त साधु के शरीर को भी प्रतिमा कहा जाता है। आचारदिनकर में वर्णित यतियों की बारह प्रतिमाओं की उद्वहनविधि एक विशिष्ट साधना-पद्धति है। इस साधना पद्धति का वहन साधक किस प्रकार से करे- उससे सम्बन्धित विधि-विधानों का ही इसमें निरूपण किया गया है। श्वेताम्बर जैन-परम्परा में गृहस्थों की ग्यारह और यतियों की बारह प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है। दिगम्बर-परम्परा में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु यति की बारह प्रतिमाओं का उल्लेख हमें वहाँ देखने को नहीं मिला। इसी प्रकार वैदिक-परम्परा में भी इस प्रकार की विधि हमें देखने को नहीं मिली। वर्धमानसूरि के अनुसार ४६ राग-द्वेष से ऊपर उठकर विषय परित्यागपूर्वक प्रतिमा का पूर्णतः पालन करने से साधु-साध्वियों को योगसिद्धि होती है। जैन-परम्परा में मन-वचन एवं काया के व्यापार को योग कहा गया है। इस संस्कार के माध्यम से मन-वचन एवं काया के व्यापारों को विराम मिल जाता है, क्योंकि यदि कोई साधक सम्यक् रूप से प्रतिमा की परिपालना करता है, तो वह निश्चित रूप से अपने परमलक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, और परमलक्ष्य को प्राप्त करने पर स्वतः ही मन-वचन एवं काया का व्यापार रूक जाता है। अतः योग-सिद्धि के उद्देश्य से ही यह संस्कार किया जाता है। वर्धमानसूरि के अनुसार साधक किन नक्षत्रों, वारों आदि में प्रतिमा का वहन करे- इसका तो उल्लेख मिलता है, किन्तु कौन-कितनी दीक्षापर्याय में प्रतिमाकल्प को स्वीकार करे-इसका उल्लेख आचारदिनकर में तो नहीं मिलता है, किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध की मूल गाथाओं की टीका में इसका उल्लेख मिलता है। टीका के अनुसार ५० भिक्षुप्रतिमा का आराधन करने के लिए प्रारम्भ के तीन संहनन, २० वर्ष की संयमपर्याय, २६ वर्ष की वय तथा जघन्यतः नवें पूर्व की वस्तु का "देखेः औपपातिकसूत्र, मधुकरमुनि, पृ.-३८, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण : १६६२. पंचाशक प्रकरण, अनु.- दीनानाथ शर्मा, प्रकरण- अठारहवाँ, पृ.-३१३, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण : १९६७. ५४६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ५५°दशाश्रुतस्कन्ध, मधुकरमुनि, पृ.-६४, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण : १६६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy