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________________ वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 273 सात-सात दत्तियाँ सात मास तक लेता है। आठवीं, नवीं और दसवीं प्रतिमा सात-सात अहोरात्र की होती है। आठवीं प्रतिमा में मुनि निर्जल उपवास और पारणे में एकभक्त करता है तथा कायोत्सर्ग के साथ उत्थित्त आसन में रहता है। मुनि नवी प्रतिमा में पूर्वोक्त तप करते हुए उत्कटिक आसन या दण्डासन में तथा दसवीं प्रतिमा में गोदुहिका, वीरासन या कुब्जासन में स्थित रहता है। शेष विधि आठवीं से दसवीं प्रतिमा तक आठवीं प्रतिमा की तरह ही है। ग्यारहवीं अहोरात्रि की प्रतिमा में मुनि दो दिन के निर्जल उपवास में भुजाओं को प्रलम्बित कर कायोत्सर्ग करता है। बारहवीं एक रात्रि की प्रतिमा में मुनि निर्जल उपवास के तीसरे दिन निर्निमेष दृष्टिपूर्वक व्याघ्राञ्चित पाणिपाद की स्थिति में रहता है-इस प्रकार यति की बारह प्रतिमाएँ है। एतदर्थ विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के द्वितीय भाग के छब्बीसवें उदय को देखा जा सकता है। तुलनात्मक विवेचन श्वेताम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में भिक्षु की बारह प्रतिमाओं का विस्तारपूर्वक उल्लेख दशाश्रुतस्कन्ध, औपपातिकसूत्र एवं हरिभद्रसूरिकृत पंचाशकप्रकरण में मिलता है। विधिमार्गप्रपा, सुबोधासामाचारी, निर्वाणकलिका, सामाचारी आदि विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थों में हमें प्रतिमावाहन-विधि नहीं मिलती है। __ वर्धमानसूरि ने प्रतिमावहन की विधि का उल्लेख करने से पूर्व प्रतिमा ग्रहण करने के योग्य मुनि के लक्षणों का निरूपण किया है।५५२ दशाश्रुतस्कन्ध में प्रतिमा वहन करने के योग्य मुनि के लक्षणों की चर्चा पृथक् से देखने को नहीं मिलती है। टीका में इनका संक्षिप्त विवेचन तो मिलता है, किन्तु मूलगाथाओं में इसका हमें कोई उल्लेख देखने को नहीं मिलता है। हरिभद्रसूरिकृत पंचाशकप्रकरण में इस विषय की चर्चा विस्तार से की गई है। यथा५३- संहननयुक्त (प्रथम तीन संघयण), धृतियुक्त, महासात्त्विक, भावितात्मा, सुनिर्मित, उत्कृष्ट से थोड़ा कम दसपूर्व और जघन्य से नवें पूर्व की तीसरी वस्तु तक का श्रुतज्ञानी, व्युत्सृष्टकाय, त्यक्तकाय, जिनकल्पी की तरह उपसर्ग सहिष्णु, अभिग्रहवाली एषणा लेने वाला, अलेप आहार लेने वाला और अभिग्रह वाली उपधि लेने वाला साधु ही गुरु से सम्यक् आज्ञा प्राप्त कर इन प्रतिमाओं को स्वीकार कर सकता है। ज्ञातव्य है कि वर्धमानसूरि ने प्रथम संघयण (विशेष शारीरिक संरचना) से युक्त मुनि को ही इन ५२ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-छब्बीसवाँ, पृ.-११७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ५५३ पंचाशकप्रकरण, अनु.- दीनानाथ शर्मा, प्रकरण- अठारहवाँ, पृ.-३१४, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण : १६६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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