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________________ साध्वी मोक्षरत्ना श्री ५३० वर्धमानसूरि के अनुसार इस संस्कार का प्रयोजन शिष्यों को द्वादशांगी का सम्यक् रूपेण अध्यापन कराने हेतु मुनि विशेष की नियुक्ति करना है । ' सामान्य वाचनाओं के लिए तो योग्य वाचनाचार्यों की नियुक्ति की जाती है, किन्तु जिनवाणी के सारभूत द्वादशांगी का अध्ययन करवाने के उद्देश्य से उपाध्याय की नियुक्ति की जाती है। जिसे सम्यक् ज्ञान हो, वही शिष्यों को द्वादशांगी का परिपूर्ण अध्ययन करवा सकता है। इस प्रकार सम्यक्रूपेण सूत्रार्थ के अध्यापन के प्रयोजन से उपाध्याय-पद पर किसी मुनि की नियुक्ति की जाती है। 260 वर्धमानसूरि के अनुसार आचार्य पद का योग, अर्थात् मुहूर्त होने पर यह संस्कार किया जाता है। ग्रन्थकर्त्ता ने इस संस्कार हेतु दीक्षा को महत्व न देते हुए मात्र उपाध्याय - पद की योग्यताओं का निरूपण किया है, अर्थात् जब व्यक्ति में उपाध्याय के पद के योग्य लक्षण प्रकट हो जाते हैं, तभी उसे उपाध्याय का पद प्रदान किया जाता है, किन्तु व्यवहार सूत्र में इस पद के लिए उपयुक्त योग्यताओं के साथ-साथ दीक्षापर्याय का भी निर्देश किया गया है। जैसे - ५३१ तिवास परियाए समणे निग्गंथे- आयार कुसले, संजम कुसले, पवयण कुसले, पण्णत्ति कुसले, संगह कुसले, उवग्गह कुसले अक्खायारे, अभिन्नायारे, असबलायारे, असंकिलिट्ठायारे, बहुस्सुए बब्भागमे, जहण्णेणं आयारप्पकप्प-धरे, कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्दित्तिए । अर्थात् तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ-यदि आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल, संग्रहकुशल, और उपग्रह करने में कुशल हो, तथा अक्षत चारित्र वाला, अशबल चारित्र वाला और असंक्लिष्ट आचार वाला हो, बहुश्रुत एवं बहुआगमज्ञ हो और कम से कम आचार - प्रकल्प धारण करने वाला हो, तो उसे उपाध्याय का पद दिया जा सकता है। उपर्युक्त योग्यताओं के अभाव में भले ही उसकी दीक्षापर्याय तीन वर्ष की भी हो, तो भी वह उपाध्यायपद के योग्य नहीं होता है। इसके सिवाय मध्यम या उत्कृष्ट किसी भी दीक्षापर्याय वाले एवं श्रुत - अध्यापन की योग्यता वाले किसी भी मुनि को यह पद दिया जा सकता है। इस प्रकार आगमसूत्रों में उपाध्याय के पद हेतु आवश्यक योग्यताओं के साथ-साथ उसके लिए जघन्य दीक्षापर्याय का भी निर्देश किया गया है। दिगम्बर- परम्परा में भी उपाध्याय - पद के योग्य होने पर ही उसे उपाध्याय - पद से सुशोभित किया जाता है तथा वहाँ भी शुभ मुहूर्त आदि पर जौहरी बाजार, जयपुर. ५३० आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. व्यवहारसूत्र, मधुकरमुनि, सूत्र - ३/३, पृ. ३११, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण १६६२. ५३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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