SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 259 का बंधन करता ही है, साथ ही संघ में भी अव्यवस्था को फैलाता है; अतः गण के कुशल संचालन हेतु भी यह संस्कार आवश्यक है। उपाध्याय पदप्रदान- विधि उपाध्याय पदप्रदान विधि का स्वरूप उपाध्याय शब्द अध्याय के आगे उप उपसर्ग लगने से बना है। उप का अर्थ समीप तथा अध्याय का अर्थ-अध्ययन करना है, अर्थात् जिसके समीप बैठकर अध्ययन किया जाए, उसे उपाध्याय कहते हैं। भिक्षु आगम विषय कोश के अनुसार सूत्रार्थ के ज्ञाता तथा सूत्रवाचना द्वारा शिष्यों के निष्पादन में जो कुशल हो-उसे उपाध्याय कहते हैं। सामान्यतः श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार जो पठन-पाठन करवाए, उसे उपाध्याय कहते हैं। दिगम्बर-परम्परा में भी उपाध्याय शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि- जिसके पास जाकर अध्ययन किया जाए, उसे उपाध्याय कहते हैं।१२७ वैदिक-परम्परा में भी इस शब्द की यही व्याख्या की गई है, किन्तु यहाँ यह स्पष्ट कर लेना आवश्यक है कि जैन-परम्परा में निर्ग्रन्थ उपाध्याय मात्र स्व-पर कल्याण के ध्येय से सिद्धांतों का पठन-पाठन करवाते हैं, जबकि वैदिक-परम्परा में उपाध्याय आजीविका का उपार्जन करने के लक्ष्य से शिष्यों को अध्ययन करवाते है। जैसा कि मनुस्मृति में कहा गया है कि- वेद के एक देश अथवा अंग को, जो वृत्ति के लिए अध्ययन कराता है, उसे उपाध्याय कहते हैं। भविष्य-पुराण के दूसरे अध्याय में भी उपाध्याय के सम्बन्ध में यही बात कही गई है। अतः जैन-परम्परा के उपाध्याय एवं वैदिक-परम्परा के उपाध्याय की अध्यापन दृष्टि में महत् अन्तर है। उपाध्याय-पद के महत्व को समझते हुए वर्धमानसूरि ने इसे भी एक संस्कार के रूप में माना है, जबकि दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में इसे संस्कार के रूप में नहीं माना है। यद्यपि वैदिक-परम्परा में यह पद होता तो है, लेकिन इस पद को प्रदान करने सम्बन्धी विधि-विधानों का उल्लेख उपलब्ध ग्रन्थों में देखने को नहीं मिला। विद्वज्जनों को यदि इस सम्बन्ध में कोई जानकारी हो, तो हमें अवश्य बताएं। ५२६ ५२६ भिक्षुआगम विषयकोश (भाग-१), सम्पादक- आचार्य महाप्रज्ञ, पृ.- १५१, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनू,प्रथम __ संस्करण : २००५. ५० मूलाचार, सम्पादक डॉ. फूलचन्द्र जैन एवं डॉ. श्रीमती मुन्नी जैन, अधिकार-चतुर्थ, पृ.-११६, भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत परिषद, प्रथम संस्करण १६६६. हिन्दू धर्मकोश, डॉ. राजबली पाण्डेय, पृ.-१२३, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७८. हुम्बुज श्रमण भक्तिसंग्रह, पृ.-४६६, श्रीसंतकुमार खण्डाका, खण्डाका जैन ज्वैलर्स, हल्दियों का रास्ता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy