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________________ 258 साध्वी मोक्षरत्ना श्री है, किन्तु अन्य ग्रन्थों में मिलता है। जैसे- विधिमार्गप्रपा में वर्धमानविद्या-मंत्र का उल्लेख मिलता है२९, किन्तु आचारदिनकर में वर्धमानविद्या-मंत्र नहीं दिया गया है। वाचनाचार्य-पद प्रदान करते समय वाचनाचार्य पद धारण करने वाला शिष्य कौनसे तप का प्रत्याख्यान करे, इसका उल्लेख आचारदिनकर में मिलता है, किन्तु विधिमार्गप्रपा, एव सामाचारी में इसका उल्लेख नहीं मिलता है। इसी प्रकार वर्धमानविद्या-मंत्रलेखन की विधि का उल्लेख सामाचारी२५ में मिलता है, किन्तु आचारदिनकर में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। इस प्रकार यह संस्कार दोनों परम्पराओं में अपनी-अपनी गच्छ की मान्यता के अनुसार आज भी किया जाता है। उपसंहार जैन-परम्परा में वाचना का बहुत महत्व है। नूतन मुनियों के दीक्षित होने के साथ ही उन्हें वाचना दी जाती है और उनके ज्ञान को परिपक्व बनाया जाता है, जिससे वे आगे चलकर उस परम्परा का निर्वाह कर सकें, किन्तु वाचना-ग्रहण करते समय यह आवश्यक नहीं है कि वाचना ग्रहण करने वाले सभी मुनि वाचना को सम्यक् प्रकार से ग्रहण कर ही पाएं, क्योंकि ज्ञान के क्षयोपशम के कारण कोई अल्प मात्रा में उस वाचना को ग्रहण कर पाता है, तो कोई अधिक मात्रा में उस वाचना को ग्रहण कर पाता है। पुनः, वाचना ग्रहण करने के बाद भी यह आवश्यक नहीं, है कि वाचना ग्रहण करने वाले सभी मुनि वाचना प्रदान करने में समर्थ हो ही, क्योंकि कोई मुनि अपनी वाक् शैली एवं आगम युक्तियों से किसी को भी कोई विषय अच्छी तरह से समझा सकने में समर्थ होता है और कोई मुनि अपनी बात किसी को अच्छी तरह समझाने में समर्थ नहीं होता है। यह उनके ज्ञान के क्षयोपशम पर निर्भर है। अतः वाचना प्रदाता के रूप में सही व्यक्ति का चयन करना आवश्यक है। इस संस्कार के माध्यम से वाचना देने के योग्य, अर्थात् अध्यापन कराने के योग्य व्यक्ति का चयन करके उसे वाचनाचार्य के पद पर नियुक्त किया जाता है, जिससे कि वह अपने आश्रितों को सम्यक् ज्ञान दे सके, क्योंकि योग्य व्यक्ति ही अपने कार्यों को सही अंजाम दे सकता है। यही गणानुज्ञा के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। कुशल एवं योग्य व्यक्ति ही गण का नेतृत्व भली प्रकार से कर सकता है। अकुशल व्यक्ति स्वयं तो कर्म १"विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, प्रकरण-२७, पृ.-६५, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २०००. "सामाचारी, तिलकाचार्य विरचित, प्रकरण-३४, पृ.-४६,से ४७, सेठ डाह्याभाई मोकमचन्द, अहमदाबाद, वि.स. -१६६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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