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________________ वर्धमान सूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन निर्धारित स्वरूप को पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर पाता है। व्यवहार नामक छेदसूत्र में भी किस आगम को किस क्रम से और कितने वर्ष की दीक्षापर्याय के पश्चात् पढ़ाया जाए, इसकी विस्तृत चर्चा है, जिसका उल्लेख हमनें योगोद्वहन - विधि में किया है। आचारदिनकर में वाचना-ग्रहण करने के योग्य मुनि के लक्षण, वाचना - सामग्री का भी उल्लेख मिलता है, विधिमार्गप्रपा में इसका उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध में वाचना के योग्य कौन मुनि होता है, इस संदर्भ में उल्लेख मिलता है। .५१० 253 वाचनाग्रहण विधि की कुछ क्रियाएँ ऐसी भी हैं, जिनकी चर्चा हमें विधिमार्गप्रपा में तो मिलती हैं, किन्तु आचारदिनकर में नहीं मिलती है, जैसे " - अनुयोग के आरम्भार्थ कायोत्सर्ग के बाद वाचना देने की आज्ञा प्राप्त करने हेतु एवं वाचना की आज्ञा को स्वीकार करने हेतु वाचनादाता आचार्य को खमासमणा देता है, इसी प्रकार आसन ग्रहण करने हेतु भी दो बार खमासमणा देना होते हैं। _५१२ ५१३ आचारदिनकर में वाचनादान एवं वाचनाश्रवण के नियमों तथा वाचना श्रवण से क्या लाभ होता है, इसकी चर्चा नहीं मिलती है, जबकि विधिमार्गप्रपा' एवं पंचवस्तु ' में इस विषय की स्पष्ट चर्चा मिलती है। इस प्रकार श्वेताम्बर - परम्परा के उपर्युक्त ग्रन्थों की इन विधियों में आंशिक समानता एवं भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। उपसंहार मुनि - जीवन में यह संस्कार अत्यन्त आवश्यक है, जिस प्रकार खदान में पड़े हुए हीरे को योग्य जौहरी तराशकर उसके मूल स्वरूप को प्रकट कर देता है, उसी प्रकार योग्य गुरु शिष्य को शास्त्रों का सम्यक् अध्ययन कराकर उसके शुद्धात्मस्वरूप को प्रकट करने में सहायक होता है । वाचना-ग्रहण की विधि से मात्र शिष्य का ही श्रेय नहीं होता, वरन् गुरु के भी कर्तव्य का निर्वाह होता है, क्योंकि गुरु का भी यह कर्त्तव्य होता है कि वह अपनी शक्ति के अनुसार स्व- आश्रित शिष्यों का अनुग्रह करने के ध्येय से उन्हें वाचना अवश्य दे। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि वाचनादाता गुरु भी स्वयं की वाचना देने की ५१० दशाश्रुतस्कन्ध, मधुकरमुनि, सूत्र- ४ /१०-१३, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण १६६२. " विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, प्रकरण-२६, पृ. ६५, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २०००. ५१२ विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, प्रकरण-२६, पृ. ६५, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २०००. ५३ पंचवस्तु, अनु. - राजशेखरसूरिजी द्वार-गणानुज्ञाद्वार, पृ. ४५४ से ४५५, अरिहंत आराधक ट्रस्ट, बॉम्बे, द्वितीय संस्करण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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