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________________ 254 साध्वी मोक्षरत्ना श्री शक्ति का गोपन करके अन्य आराधना करता है, तो उसका ऐसा करना उचित नहीं है। कारण, शक्ति का गोपन किए बिना जो यत्न करता है, उसे ही यति कहते हैं। श्वेताम्बर-परम्परा में भद्रबाहु स्वामी द्वारा अपनी ध्यान साधना हेतु मुनियों को पूर्वो का अध्ययन कराने से निषेध करने पर उन्हें प्रायश्चित्त का अधिकारी बताया था, अतः ज्ञानी गुरु को कर्तव्य का निर्वाह करने हेतु भी यह संस्कार आवश्यक है। मोक्ष की प्राप्ति में सहायक होने के कारण भी यह संस्कार उपयोगी है, क्योंकि प्रायः धृतधर्म से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। "सम्यक्त्व मोक्ष का बीज है, वह सम्यक्त्व स्वरूपतः सत्य जीवादि तत्त्वों के ज्ञान एवं श्रद्धास्वरूप और आत्मा के शुभ परिणामस्वरूप होता है। सम्यक्त्व प्रकट होते के साथ ही जीव को शुभाशय वाला बनाता है, जिससे जीव को पारमार्थिक सुख की प्राप्ति होती है। जीव जब परमार्थतः धर्म में प्रवृत्ति करता है, तो वह पारमार्थिक शुभ का अनुबंध करता हैं। इस प्रकार अनन्तर मोक्ष का हेतु होने के कारण भी यह संस्कार अत्यन्त उपयोगी है। वाचनानुज्ञा (वाचनाचार्य) विधि वाचनानुज्ञा विधि का स्वरूप वाचनानुज्ञा शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- वाचना+अनुज्ञा। वाचना शब्द का तात्पर्य अध्ययन करना और अध्ययन कराना- दोनों ही हैं, क्योंकि वाचना में वाचना देने वाला (गुरु) और वाचना लेने वाला शिष्य-दोनों ही अन्तर्गर्भित है। अनुज्ञा का तात्पर्य अनुमति प्रदान करना है। संक्षेप में अध्ययन कराने की अनुमति प्रदान करने की विधि को वाचनानुज्ञा की विधि कहते है। इस संस्कार के माध्यम से वाचना प्रदान करने के योग्य मुनि को वाचनाचार्य के पद पर नियुक्त किया जाता है। वाचनाचार्य के पद पर नियुक्त होने के बाद उस मुनि का यह कर्त्तव्य होता है, कि वह अपनी शक्ति के अनुरूप वाचना दें, अर्थात् अध्ययन कराए। वर्धमानसूरि ने वाचनाचार्य की विधि का वर्णन करते हुए कहा है कि गणानुज्ञा की भी यही विधि है।५१६ दोनों की विधियों में जो आंशिक भिन्नता है, उसे भी ग्रंथकार ने आचारदिनकर में उल्लेखित किया है। दिगम्बर-परम्परा में "पंचवस्तु, अनु.-राजशेखरसूरिजी, द्वार-गणानुज्ञाद्वार, पृ.-४५३, अरिहंत आराधक ट्रस्ट, बॉम्बे,द्वितीय संस्करण. ५१५ पंचवस्तु, अनु.-राजशेखरसूरिजी, द्वार-गणानुज्ञाद्वार, पृ.-४६१, अरिहंत आराधक ट्रस्ट, बॉम्बे, द्वितीय संस्करण. आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- तेईसवाँ, पृ.-११२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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