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________________ 252 साध्वी मोक्षरला श्री तथा अनुयोग के आरम्भार्थ कायोत्सर्ग करे। तत्पश्चात् शिष्य गुरु के समक्ष सुखासन में बैठकर विधिपूर्वक वाचना ग्रहण करे। वाचना के बीच किन-किन कार्यों का निषेध किया जाना चाहिए, इसका भी मूलग्रन्थ में उल्लेख हुआ है। इसके साथ ही वाचनाक्रम का भी वहाँ उल्लेख किया गया है। तदनन्तर वाचना के पश्चात् गुरु के साथ शिष्य स्वाध्यायप्रस्थापना करे तथा अनुयोग के प्रतिक्रमणार्थ कायोत्सर्ग करे। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि वाचनाक्रम में वाचना करते हुए संघट्टा (संस्पर्श) और आयम्बिल आदि कुछ भी न करे। साधुओं द्वारा प्रतिदिन यह क्रिया करनी चाहिए। ___ इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के द्वितीय विभाग के बाईसवें उदय के अनुवाद को देखा जा सकता है। तुलनात्मक विवेचन दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में मुनि के वाचनाग्रहण-संस्कार के सदृश किसी संस्कार का उल्लेख प्रायः हमें नहीं मिलता है। यद्यपि वैदिक-परम्परा में उपनयन संस्कार में ही वेदाध्ययन का एक उपसंस्कार होता है, किन्तु उस परम्परा में मुनि/संन्यासी के अध्ययन सम्बन्धी किसी विशिष्ट विधि-विधान का कोई उल्लेख हमें देखने को नहीं मिला। दिगम्बर-परम्परा में मुनि के शास्त्र अध्ययन सम्बन्धी संस्कार का उल्लेख तो पुराणों में क्रिया के रूप में है, किन्तु उसकी पूरी प्रक्रिया का उल्लेख नहीं हैं। श्वेताम्बर परम्परा के विधिमार्गप्रपा, पंचवस्तु आदि ग्रन्थों में इस संस्कार की चर्चा मिलती है। विधिमार्गप्रपा में इस संस्कार को वाचनादान के रूप में उल्लेखित किया गया है, जिसकी विधि लगभग आचारदिनकर में वर्णित वाचनाग्रहण-संस्कार की भाँति ही है। इन दोनों विधियों में जो आंशिक भिन्नता है, उसकी चर्चा हम यहाँ करेंगे। आचारदिनकर में वाचना ग्रहण करने वाले साधु को किस क्रम से आगमसूत्रों की वाचना दें, इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है, किन्तु विधिमार्गप्रपा में मुनि को किन-किन सूत्रों का अध्ययन कराएं, इसका तो उल्लेख मिलता है, परन्तु किस क्रम से उनका अध्ययन कराएं- इसका उल्लेख नहीं मिलता। वाचनादान में सूत्रों के क्रम का बहुत महत्व है। सर्वविरति चारित्र का पालन करने में जो सूत्र अत्यन्त उपयोगी हो, उन्हीं का अध्ययन सर्वप्रथम कराया जाता है, क्योंकि जब तक नींव मजबूत नहीं हो, तब तक उसका ढाँचा अपने ५० विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, प्रकरण-२१, पृ.-४१ से ४२, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २०००. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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