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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
247 इस विषय की चर्चा करते हुए श्री बृहद्योगविधि में भी इसका उल्लेख किया गया है।५०३ संस्कार का कर्ता
वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार विशिष्ट गुणों के धारक अथवा उपाध्याय आदि द्वारा करवाया जाता है। संस्कार को कराने वाले गुरु के गुणों की चर्चा भी ग्रन्थकार ने विस्तार से की है कि वह किस प्रकार का होना चाहिए, कैसे-कैसे गुण उसमें होने चाहिए, इत्यादि।
वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में इसकी निम्नविधि अंकित की हैयोगोद्वहन-विधि
आगमग्रन्थों के अध्ययन हेतु तप एवं उनका पारण तथा स्वाध्याय हेतु कालग्रहण आदि को निर्धारित क्रम से करना योगोद्वहन है। इस विधि में सर्वप्रथम यह बताया गया है कि किस प्रकार के गुणों से युक्त साधु योगोद्वहन के योग्य होता है, योगोद्वहन करवाने वाले गुरु किस प्रकार के होने चाहिए, योगोद्वहन में किस प्रकार की सामग्री, उपकरण आदि सहायक होते हैं, साथ ही योगोद्वहन हेतु किस प्रकार का क्षेत्र एवं वसति शुभ होती है- इसका विस्तृत विवेचन मूलग्रन्थ में हुआ है। तत्पश्चात् योगोद्वहन हेतु उचित काल बताते हुए योगोद्वहन की सामान्य चर्या का उल्लेख किया गया है। तदनन्तर विभिन्न आगमों के साथ-साथ भगवतीसूत्र के योग की विशेष चर्या का भी उल्लेख हुआ है। इसमें यह बताया गया है कि भगवतीसूत्र के योगवाही को किस प्रकार का आहार लेना चाहिए, किस प्रकार का आहार नहीं लेना चाहिए, भिक्षा ग्रहण करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। तीस प्रकार के निवियातों में से कौन-कौनसे निवायतें किस प्रकार साधु को ग्रहण करने के योग्य हैं, इत्यादि। कदाचित् निर्दिष्ट चर्या का भंग हो जाए, तो उसका क्या प्रायश्चित्त आता है, इस पर भी मूलग्रन्थ में विचार किया गया है।
तदनन्तर आवागमन में होने वाले संस्पर्शों के दोषों की विधि बताई गई है। तत्पश्चात् हाथ, पैर, धर्मध्वज, पात्र डोरी, झोलिका आदि स्थिर संघट्ट (संस्पर्श) हैं- इस कथन का उल्लेख करते हुए मूलग्रन्थ में इन सबकी स्पर्शन की विधि का उल्लेख किया गया है। तदनन्तर किन कालों में कालग्रहण, स्वाध्याय आदि करे, उससे सम्बन्धित उचित एवं अनुचित काल का मूलग्रन्थ में सूचन किया गया है।
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५०३ श्री बृहद् योग विधि, श्री खान्तिविजयजी गणि, पृ.-१२, श्री उमेद खान्ति जैन ज्ञान मंदिर, झींझुवाडा, १६२८.
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