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साध्वी मोक्षरना श्री
इस प्रकरण में अस्वाध्यायकाल की भी विस्तार से चर्चा की गई है। तदनन्तर यह बताया गया है कि योग के आरम्भ में योगवाही को लोच, उपधि प्रक्षालन, सर्वाश्रयों का त्याग तथा कल्प्यतर्पण की विधि करनी चाहिए। तत्पश्चात् योगोद्वहन की विधि के समय दिन-शुद्धि आदि देखे जाने का कथन किया गया है। तत्पश्चात् आगम के (१) श्रुत (२) श्रुतस्कन्ध (३) वर्ग या शतक (४) अध्ययन (५) उद्देशकइन पाँच विभागों को बताते हुए प्रत्येक विभाग की व्याख्या की गई है तथा उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा के अर्थ को भी स्पष्ट किया गया है। तदनन्तर यह बताया गया है कि अंग-आगमों के श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, उद्देशक आदि की वाचना दिवस के प्रथम प्रहर में ही करें, अन्य प्रहरों में न करें। अंगबाह्य के अध्ययन, उद्देशक आदि की वाचना रात्रि में कर सकते हैं। तत्पश्चात् योग के दो प्रकारों आगाढ़योग एवं अनागाढ़योग की व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि कौनसे सूत्र के योग आगाढ़ हैं तथा कौनसे सूत्र के योग अनागाढ़ हैं।
तदनन्तर कालिकसूत्रों के योग हेतु कालग्रहण की विधि एवं स्वाध्याय प्रस्थापन की विधि बताई गई है। योगवाही को प्रतिदिन प्रभातकाल में योग के संरक्षणार्थ एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करना चाहिए तथा योगोद्वहन एवं श्रुतस्कन्धों के आरंभ समाप्ति पर नंदीविधि करनी चाहिए। तत्पश्चात् मूलग्रन्थ में नंदीविधि का उल्लेख हुआ है। यह नंदीविधि प्रव्रज्याविधि के समान ही है, किन्तु नंदीपाठ के अन्त में उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा हेतु कुछ विशेष क्रिया की जाती है। तदनन्तर उद्देशक आदि के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की विधि बताई गई है। तदनन्तर योगवाही अमुक श्रुतस्कन्ध, अमुक अध्ययन के उद्देश, समुद्देश अथवा अनुज्ञार्थ
आयम्बिल एवं नीवि के (प्रत्याख्यान) हेतु गुरु से निवेदन करे। तत्पश्चात् गुरु निरूद्ध में आयम्बिल का तथा पारण में नीवि का प्रत्याख्यान कराए। तत्पश्चात् पुनः स्वाध्याय प्रस्थापन करे। कालिक एवं उत्कालिक अंगबाह्य आगमग्रन्थों के अध्ययन हेतु कालग्रहण, स्वाध्यायप्रस्थापन, संघट्टा आदि की अलग से कोई विधि नहीं कही गई है। इनकी विधि अंगप्रविष्ट आगमग्रन्थों हेतु निर्दिष्ट विधि के समान ही है। यह सब योगों के संसाधन की विधि है।
तदनन्तर विभिन्न आगमों के योगोद्वहन की क्रमिक विधि बताई गई है। सर्वप्रथम आवश्यकसूत्र के योगोद्वहन की विधि बताई गई है। आवश्यकसूत्र में एक श्रुतस्कन्ध हैं, यह आगाढयोग है तथा इस योग में आठ दिन लगते है। इस योग में एकान्तर से आयम्बिल के पारणे नीवि करते है। प्रथम तथा अन्तिम दिन नंदीक्रिया की जाती है। प्रथम छ: दिनों में षट् अध्ययनों के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा हेतु क्रिया की जाती है। प्रथम दिन आवश्यक श्रुतस्कन्ध के उद्देश की क्रिया भी की जाती है तथा उस दिन मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना, वंदन, खमासमणा,
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