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________________ 236 साध्वी मोक्षरत्ना श्री दीक्षा के पश्चात् शिष्य को, अर्थात् साधकमुनि को किस प्रकार से अपने आचार का पालन करना चाहिए, इसका विवेचन करते हुए ग्रन्थकार ने दशवैकालिक के क्षुल्लकाचार का उपदेश देने का निर्देश किया है। पंचवस्तु८४ में भी इस प्रसंग का वर्णन बहुत ही विस्तार से किया गया है। दिगम्बर-परम्परा में दीक्षाद्यक्रिया के बाद उपदेश देने का उल्लेख तो हमें नहीं मिलता, किन्तु दिगम्बर-परम्परा में भी दीक्षाद्यक्रिया के बाद साधक को धर्म में स्थिर करने हेतु उपदेश देने का विधान होगा- ऐसा हम मान सकते है। वैदिक-परम्परा में भी संन्यासी को किस तरह से रहना चाहिए, इन सबका उल्लेख मिलता है। प्रव्रज्यासंस्कार के अन्त में वर्धमानसरि ने प्रसंगवश जिनकल्पियों की दीक्षा विधि का भी संक्षेप में विवेचन किया है, जो दिगम्बरों की मुनिदीक्षा के समान प्रतीत होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि तीनों परम्पराओं में प्रव्रज्याविधि सम्बन्धी कुछ बातें परस्पर समान हैं तथा कुछ बातें असमान है। जैन-परम्परा में प्रव्रज्याविधि के पश्चात् सावद्यकारी प्रवृत्तियों का पूर्ण निषेध हो जाता है, किन्तु वैदिक-परम्परा में इन क्रियाओं का पूर्ण निषेध नहीं होता है, मात्र आंशिक निषेध ही होता है। जैसे- जैन-परम्परा में मुनि को शौचकर्म करने का निषेध है, किन्तु वैदिक-परम्परा में संन्यासियों को भी गृहस्थ के समान ही क्रम से तीन एवं चार बार शौचकर्म (शरीरशुद्धि) करने का निर्देश है। उपसंहार इस तुलनात्मक विवेचन के पश्चात् इस संस्कार की आवश्यकता एवं उपादेयता के सम्बन्ध में समीक्षात्मक विवेचन करना आवश्यक है। वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार सामायिक के संग्रह के रूप में है। सामायिक का तात्पर्य है- रागद्वेष के त्यागरूप साम्य-भाव। इस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति समता की साधना करता है। विकट परिस्थितियों के आने पर भी उसके मन में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होता है, अनुकूल परिस्थितियों में भी किसी के प्रति राग तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में किसी के प्रति द्वेष नहीं होता है। इस प्रकार वह साधक ५८४ पंचवस्तु, अनु. आचार्य राजशेखरसूरिजी, द्वार-प्रथम, पृ.-७५ से ७६ अरिहंत आराधक ट्रस्ट, बॉम्बे, द्वितीय संस्करण * धर्मशास्त्र का इतिहास, (प्रथम भाग), डॉ. पांडुरंग वामण काणे, अध्याय-२८, पृ.-४६१-४६५, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण १६८०. ४६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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