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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 237 प्रतिक्षण अपनी आत्मा में लीन रहकर स्वयं का तथा उपदेश देकर पर का कल्याण कर सकता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आत्मोत्थान हेतु यह संस्कार परमावश्यक हैं, क्योंकि व्यक्ति कर्मों का बन्ध समता के अभाव में ही करता है। व्यक्ति में जैसे ही इस गुण का आविर्भाव हो जाता है, वैसे ही कर्मों की निर्जरा होने लगती है तथा साधक आत्मानंद की अनुभूति करने लगता है। आगम के अनुसार इस दीक्षा-विधान का चिन्तन करने से व्यक्ति सकृत्बन्धक एवं अपुनर्बन्धक रूप कदाग्रह का शीघ्र ही त्याग करता है। इस प्रकार इस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति समता की साधना करके अपने आत्मस्वभाव की प्राप्ति करता है, जो प्रत्येक आत्मा का परम लक्ष्य है। इस प्रकार सर्वविरतिरूप चारित्र के प्राप्त होने पर वह भूतकाल में आचरित मिथ्याचारों की निंदा करके, वर्तमान में उन आचारों का सेवन नहीं करके और भविष्य में उन आचारों का प्रत्याख्यान करके, जीव उत्तरोत्तर विकास को प्राप्त होता हुआ जीवन्मुक्ति का अनुभव करके, अन्त में सभी कर्मों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है। उपस्थापन-विधि उपस्थापन विधि का स्वरूप उपस्थापन शब्द का तात्पर्य है- आत्मा के निकट उपस्थित रहना या आत्मा में रमण करना। इस संस्कार का सम्पूर्ण नाम छेदोपस्थापनीय चारित्र है। इसका तात्पर्य यह है कि इसमें पूर्व दीक्षापर्याय का छेद करके नवीन महाव्रतारोपण रूप दीक्षा प्रदान की जाती है। परम्परागत दृष्टि से इसे बड़ी दीक्षा भी कहा जाता है। इस संस्कार के माध्यम से साधक को पंचमहाव्रतों एवं छठवें रात्रिभोजन-त्यागवत का आरोपण किया जाता है। इस संस्कार के माध्यम से पूर्व साधक सावध व्यापारों का त्याग करता है और सामायिक चारित्र ग्रहण करता है। इस संस्कार द्वारा ही उसे महाव्रतों के पालन की प्रतिज्ञा करवाई जाती है। परम्परागत मान्यता यह है कि भगवान आदिनाथ एवं महावीर स्वामी के शिष्यों को सामायिकचारित्र के बाद पंचमहाव्रतों के प्रत्यारोपणरूप छेदोपस्थापनीयचारित्र ग्रहण करवाया जाता था, वही परम्परा आज भी प्रचलित है। शेष बाईस तीर्थंकरों के शिष्यों को मात्र सामायिकव्रत का ही आरोपण करवाया जाता था। प्रथम और 1 पंचाशक प्रकरण, अनु.- डॉ. दीनानाथ शर्मा, अध्याय-२ पृ.-३५ पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण १६६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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