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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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रखे, इत्यादि। इसी प्रकार अन्य महत्वपूर्ण बातों का निर्देश ग्रन्थकार ने अपनी कृ ति में किया है। श्वेताम्बर-परम्परा के आगमों एवं विधि-विधान सम्बन्धी अन्य ग्रन्थों जैसे अन्तकृतदशांग, ज्ञाताधर्मकथा, पंचवस्तु, पंचाशक प्रकरण, निर्वाणकलिका, विधिमार्गप्रपा, सुबोधासामाचारी, सामाचारी में भी प्रव्रज्याविधि का वर्णन मिलता है। दिगम्बर-परम्परा के आदिपुराण में दीक्षा-विधि का संक्षिप्त उल्लेख मिलता है, किन्तु दीक्षाद्य क्रिया विधि का उल्लेख नहीं मिलता है। हुम्बुज श्रमण भक्ति संग्रह में प्रव्रज्याविधि का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। वहाँ दीक्षाविधि का निरूपण करते हुए सर्वप्रथम मुनिदीक्षा, आर्यिकादीक्षा आदि के योग्य-अयोग्य नक्षत्रों का उल्लेख किया गया है। लघुदीक्षाविधि में सर्वप्रथम सिद्धभक्ति, योगभक्ति करके उसका कायोत्सर्ग किया जाता है। तदनन्तर लोचकरण, नामकरण, नाग्न्यप्रदान एवं पिच्छिका प्रदान की क्रिया होती है। लोचक्रिया करने से पूर्व सिद्धभक्ति एवं योग भक्ति का पाठ कर उसका कायोत्सर्ग किया जाता है तथा लोच क्रिया के बाद सिद्ध भक्ति कर उसका कायोत्सर्ग किया जाता है। दीक्षा के समय मुमुक्षु को मुनि के अट्ठाईस गुणों का आरोपण किया जाता है। इसके अन्तर्गत पंचमहाव्रत, पाँच समिति, पंच इन्द्रियनिरोध, क्षितिशयन, अदंतधावन, खड़े होकर भोजन करना, केशलोच, अचेलता, षट्आवश्यक, अस्नान, एक समय भोजन करना आते है।' वैदिक-परम्परा में इसकी क्रियाविधि का उल्लेख बौधायनगृह्यशेषसूत्र, बौधायनधर्मसूत्र आदि में बहुत विस्तार से मिलता है८२, किन्तु वर्धमानसूरि ने जिस प्रकार की क्रियाविधि निर्दिष्ट की है, वह विधि उससे कुछ अलग है। विस्तारभय से हम उसकी चर्चा नहीं कर रहे हैं।
आचारदिनकर के अनुसार सामायिकव्रतारोपण के पश्चात् गुरु शिष्य का नामकरण करते है। वह नाम कैसा तथा कितनी विशुद्धियों से युक्त हो, इसका भी वर्धमानसूरि ने वर्णन किया है। विधिमार्गप्रपा ८३ आदि में भी नाम की शुद्धि के सम्बन्ध में निर्देश किया गया है। दिगम्बर-परम्परा के आदिपुराण ग्रन्थ में हमें इस प्रकार के उल्लेख नहीं मिलते है। वैदिक-परम्परा में भी संन्यास के बाद नवीन नामकरण करने का उल्लेख प्रायः नहीं मिलता है।
k' हुम्बुज श्रमण भक्तिसंग्रह, पृ.-४८८-९०, श्रीसंतकुमार खण्डाका, खण्डाका जैन ज्वैलर्स, हल्दियों का रास्ता,
जौहरी बाजार, जयपुर. ५८२ धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग) डॉ. पांडुरंग वामण काणे, अध्याय-२८, पृ.-५०२, उत्तरप्रदेश हिन्दी
संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण १९८०. ४८३ विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, प्रकरण-१६, पृ.-३५, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण(पुनर्मुद्रण)
२०००.
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