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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
हैं। दूसरे शब्दों में संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति को एक सामाजिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है और उसे समाज के अवियोज्य अंग के रूप में भी स्वीकार किया जाता है।
संस्कारों का दूसरा महत्व इस बात में है कि वे व्यक्ति को संस्कारित या शिक्षित करते हैं। उपनयन और विद्यारम्भ के संस्कार व्यक्ति को शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश देने के लिए ही किए जाते हैं। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है, जिसके आधार पर व्यक्ति का समाजीकरण होता है, अतः शिक्षा सम्बन्धी संस्कारों का भी व्यक्ति के वैयक्तिक और सामाजिक-जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा वस्तुतः व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य स्पष्ट करती है और उसकी जीवन-शैली को परिमार्जित करती है।
___ व्यक्ति को एक समाज के सदस्य के रूप में कार्य करने हेतु पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता होती है, किन्तु व्यक्ति दूसरे के साथ किस प्रकार का व्यवहार करे और दूसरा उसके प्रति किस प्रकार का व्यवहार करे- यह बात कहीं-न-कहीं नैतिक-व्यवस्था से जुड़ी हुई है। संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति के जीवन में नैतिक मूल्यों का विकास किया जाता है। एक-दूसरे के प्रति सामाजिक दायित्व का बोध कराया जाता है और परिवार तथा समाज में समर्पित भाव से कैसे जीवन व्यतीत किया जाए? यह बात भी व्यक्ति को संस्कार के माध्यम से ही प्राप्त होती है। सामाजिक दायित्वों एवं कर्तव्यों के बोध का मूलाधार संस्कार ही हैं।
इस प्रकार संक्षेप में संस्कार की एक सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक-मूल्यवत्ता रही हुई है। उससे इन्कार नहीं किया जा सकता। संस्कारों की यह परम्परा न केवल हिन्दू-धर्म या जैन-धर्म में है, अपितु ईसाई, इस्लाम
और पारसी, आदि विश्व के सभी धर्मों में किसी-न-किसी रूप में संस्कारों की परम्परा पाई जाती है। संस्कार मात्र कर्मकाण्ड नहीं हैं, बल्कि वे व्यक्ति के जीवन-निर्माण के सूत्र भी हैं। उनके पीछे सामाजिक, नैतिक और वैज्ञानिक आधार रहे हुए हैं। यह आधार ही उनकी मूल्यवत्ता को स्पष्ट करते हैं। संस्कारों की संख्या का तुलनात्मक विवेचन
श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में संस्कारों की संख्या कितनी-कितनी बताई गई है- यह जानना आवश्यक है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा मे वर्णित संस्कारों के स्वरूप आदि में विशेष अन्तर नहीं है, यद्यपि अपनी-अपनी परम्परागत मान्यता के कारण कुछ अंतर अवश्य है।
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