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________________ वर्धमानसरिकत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 225 के समान ही है, किन्तु दिगम्बर-परम्परा में इसे श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमा ग्रहण रूप माना गया है। वैदिक-परम्परा में भी इस संस्कार के सदृश किसी संस्कार का उल्लेख हमें नहीं मिलता है, फिर भी वानप्रस्थ अवस्था से इसका आंशिक साम्य माना जा सकता है। वर्धमानसूरि ने इसे यतिजीवन के पूर्व की भूमिका मानकर इसे संस्कार के रूप में विवेचित किया है। जिसकी चर्चा हम यथास्थान करेंगे। वर्धमानसूरि के अनुसार इस संस्कार का प्रयोजन प्रव्रज्या से पूर्व की तैयारी करना है। इस संस्कार के माध्यम से उसे मुनिदीक्षा हेतु परिपक्व बनाया जाता है। जैसा पूर्व में भी कहा गया है कि यति-आचार का पालन अत्यन्त दुष्कर कार्य है। १८ वह लोहे के चने चबाने के सदृश है। प्रत्येक व्यक्ति उसका सम्यक परिपालन कर ही पाए, यह कोई आवश्यक नहीं है; अतः प्रव्रज्या से पूर्व उसे तीन वर्ष हेतु दो करण तीन योग से महाव्रतों सहित रात्रिभोजन का त्याग करवाया जाता है, जिससे वह स्वयं की शक्ति का आंकलन कर सके कि वह इन महाव्रतों का यावज्जीवन हेतु पालन कर पाएगा या नहीं। इस प्रकार इस संस्कार का प्रयोजन प्रव्रज्या ग्रहण करने से पूर्व साधक को परिपक्व बनाना हैं ज्ञातव्य है जहाँ मुनि पंच महाव्रतों को तीन करण और तीन योग से यावज्जीवन हेतु ग्रहण करता है, वहाँ क्षुल्लक दो करण और तीन योग से मात्र तीन वर्ष हेतु इन व्रतों को ग्रहण करता है। यह संस्कार कब किया जाना चाहिए, इस सम्बन्ध में वर्धमानसूरि ने कोई निर्देश नहीं दिया है। हाँ, इतना अवश्य है कि पूर्व में तीन वर्ष सम्यक् रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने पर ही साधक को क्षुल्लक दीक्षा दी जाती है।०५६ यदि वह सम्यक् रूप से ब्रह्मचर्यव्रत का पालन नहीं करता है, तो उसे इस संस्कार से संस्कारित नहीं किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमा ग्रहण करते समय व्यक्ति क्षुल्लकत्व को प्राप्त करता है। वर्धमानसूरि के अनुसार ही दिगम्बर-परम्परा में भी क्षुल्लकत्व की प्राप्ति से पूर्व ब्रह्मचर्यव्रत का निर्वाह किया जाता है। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में ब्रह्मचर्यव्रतप्रतिमा भी आती है तथा पूर्व-पूर्व की प्रतिमाओं के पालन करने के साथ-साथ साधक आगे की प्रतिमाओं का पालन करता है।०६° इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा में भी क्षुल्लकत्व की प्राप्ति से पूर्व ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-सत्रहवाँ, पृ.-७२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-सत्रहवाँ, पृ.-७२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. सागार धर्मामृत, अनु.- आर्यिका सुपार्श्वमति जी, अध्ययन-प्रथम, पृ.-३७, भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत् परिषद, तृतीय संस्करण १६६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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