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________________ 224 साध्वी मोक्षरत्ना श्री इस प्रकार तीनों परम्पराओं में ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने सम्बन्धी संस्कार में कुछ समानता, तो कुछ विषमता दृष्टिगोचर होती है। उपसंहार _४५६ इस तुलनात्मक विवेचन के पश्चात् इस संस्कार की उपादेयता एवं आवश्यकता को लेकर कुछ समीक्षात्मक विवेचन करना आवश्यक है। वर्धमानसूरि द्वारा निर्दिष्ट यह संस्कार वास्तव में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस संस्कार से संस्कारित होने पर व्यक्ति ब्रह्मचर्यव्रत के प्रभाव से अद्भुत आत्मिक वैभव को प्राप्त करता है। जैसा कि सागार धर्मामृत में कहा गया है- “निरतिचार ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने वाले को विद्या साधित, सिद्ध और वरप्रदा होती है और मंत्र पढ़ने मात्र से सिद्ध हो जाते हैं। देव किंकर के समान आचरण करते है । निर्मल ब्रह्मचारी के नाम उच्चारणमात्र से क्रूर ब्रह्म राक्षसादि भी शान्त हो जाते हैं। " इस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को संयमित करता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार के संस्कार की अत्यन्त आवश्यकता है। संस्कारों के अभाव में ही व्यक्ति अपनी मर्यादाओं को भूल जाता है। व्यक्ति के मन एवं इन्द्रियों के संयमन हेतु ब्रह्मचर्यव्रत संजीवनी - औषधि के समान है, जो व्यक्ति के भोग-विलासरूपी रोग का मूल से नाश कर देता है। इसके साथ ही व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में भी इस संस्कार का बहुत योगदान है, क्योंकि इस व्रत के बिना व्यक्ति आत्मोन्नति नहीं कर सकता है। क्षुल्लक - विधि क्षुल्लक - विधि का स्वरूप क्षुल्लक शब्द का तात्पर्य है- छोटा । प्राचीनकाल में क्षुल्लक शब्द का तात्पर्य लघुमुनि था, अर्थात् जिसने मात्र सामायिकचारित्र ग्रहण किया हो तथा जिसे महाव्रतारोपण रूप उपसम्पदा या छेदोपस्थापनचारित्र अभी नहीं दिया गया हो, उसे क्षुल्लक कहा जाता था। उसे यावज्जीवन हेतु सामायिकव्रत का ही उच्चारण करवाया जाता है। दिगम्बर- परम्परा में ग्यारहवीं प्रतिमा को धारण करने वाले को क्षुल्लक कहा जाता है ४७, जिसकी चर्या भी प्रायः आचारदिनकर में वर्णित क्षुल्लक ४५६ सागारधर्मामृत, अनु. आर्यिका सुपार्श्वमति जी, अध्याय - सातवाँ, पृ. ३७६, भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत् परिषद, तृतीय संस्करण १६६५. ४५७ सागारधर्मामृत, अनु. - आर्यिका सुपार्श्वमति जी, अध्याय- सातवाँ, पृ. ३६६, भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत् परिषद, तृतीय संस्करण १६६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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