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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन इसके अतिरिक्त और कोई उल्लेख नहीं मिलता है। . ३६५ जिनउपवीत का स्वरूप क्या हो, अर्थात् वह कैसा एवं किस परिमाण का हो, इस सम्बन्ध में वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में कहा है कि दो स्तनों के अन्तर के समरूप चौरासी धागों को बटकर एक सूत्र करें, ऐसा एक तन्तु होता है। उसके साथ ऐसे दो तन्तु और जोड़े, इसका एक अग्र होता हैं। ब्राह्मण को ऐसे तीन, क्षत्रिय को दो एवं वैश्यों को एक अग्र धारण करना चाहिए। इस प्रकार ब्राह्मण के लिए उपवीत तीन अग्र का, क्षत्रिय के लिए दो अग्र का एवं वैश्यों के लिए एक अग्र का होता है । दिगम्बर - परम्परा में इस सम्बन्ध में मात्र इतना उल्लेख मिलता है कि यज्ञोपवीत सात लर अर्थात् सात सूत्रों का होता है, परन्तु इसका परिमाण कितना हो, इसका उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक-परम्परा में यज्ञोपवीत का परिमाण ६६ अंगुल का तिगुना बताया है । ३६७ वैदिक परम्परा में एवं दिगम्बर जैन - परम्परा में वर्ण विशेष के हिसाब से उपवीत के परिमाण का उल्लेख हमें देखने को नहीं मिला। ३६६ वर्धमानसूरि ने जिस प्रकार ब्राह्मणों के लिए स्वर्णसूत्र एवं क्षत्रियों और वैश्य को कपास का सूत्र धारण करने का निर्देश दिया है, वैसा निर्देश दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में नहीं मिलता है। वैदिक - परम्परा में मनु एवं विष्णुसूत्र के अनुसार M ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य को क्रमशः कपास, सन एवं ऊन का यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। ३६८ - वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में उपनयन संस्कार किन-किन नक्षत्रों में करना चाहिए इसका विवेचन बहुत सुन्दर ढंग से किया है तथा इसके साथ ही संस्कार के समय ग्रहों की स्थिति कैसी हो, उसका भी विवेचन किया है। जैसे वर्ण के स्वामी ग्रह का लग्न बलवान् होने पर, या व्यक्ति के गुरु, चन्द्र और सूर्य बलशाली होने पर उपनयन संस्कार करना चाहिए। इस प्रकार ज्योतिष सम्बन्धी विवेचन दिगम्बर-परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में नहीं मिलता है, किन्तु - ३६५ 179 आचारदिनकर वर्धमानसूरिकृत ( प्रथम विभाग), उदय - बारहवाँ, पृ. १६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन् १६२२ ३६६ आदिपुराण जिनसेनाचार्यकृत, अनुवादक डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व - अड़तीसवाँ, पृ. २४६, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण : २००० ३६७ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास ( भाग - प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय ७, पृ. २२०, उत्तरप्रदेश, हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८० ३६८ देखे धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय ७, पृ. २२०, उत्तरप्रदेश, हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८० Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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