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साध्वी मोक्षरला श्री
ऐसे ही सूत्र से है, जो व्रत धारण के चिन्हस्वरूप हैं । ३५८ वैदिक - परम्परा में यज्ञोपवीत का अर्थ द्विजवर्ण की प्राप्ति है।
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इस प्रकार तीनों ही परम्पराओं में उपवीत का अर्थ आंशिक रूप से भिन्न और आंशिक रूप से समान बताया गया है।
वर्धमानसूरि के अनुसार जिनोपवीत में नवतन्तुगर्भित त्रिसूत्र होते हैं, जो क्रमशः ब्रह्मचर्य की नवगुप्ति के तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप त्रिरत्न के प्रतीक माने जाते हैं । ३५६ दिगम्बर- परम्परा में यज्ञोपवीत सात सूत्र का होता है, ये सात सूत्र सात परम स्थानों के सूचकरूप माने जाते हैं। ३६० वैदिक परम्परा में देवल के अनुसार यज्ञोपवीत के नौ तन्तु नौ देवताओं के प्रतीकरूप हैं । ३६१
वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में कौन, किस कारण से, कितने सूत्र का धारण करे - इसका भी विवेचन किया है। जैसे- विप्र नवतन्तुगर्भित सूत्र के तीन सूत्र धारण कर सकता है, क्योंकि ब्राह्मणों के लिए नवब्रह्मगुप्तिगर्भित ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय स्वयं करणीय है, दूसरों से कराने योग्य है एवं दूसरों को करवाने की आज्ञा देने के योग्य है। इसी प्रकार क्षत्रिय को नवतन्तुगर्भित त्रिसूत्र में प्रथम के दो सूत्र और वैश्य को एक सूत्र, शूद्र को मात्र उत्तरीयवस्त्र एवं वणिकों के लिए उत्तरासंग को धारण करना बताया है । ३६२ दिगम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में भी योग्यता के अनुरूप यज्ञोपवीत धारण करने का उल्लेख मिलता है । २६३ वैदिक - परम्परा में किस वर्ण का व्यक्ति कितने सूत्रों को धारण करे इसका उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु इस बात का उल्लेख जरूर मिलता है कि ब्रह्मचारी केवल एक यज्ञोपवीत को धारण करता था। संन्यासी भी अगर चाहे, तो एक यज्ञोपवीत पहन सकता था । स्नातक एवं गृहस्थ दो उपवीत तथा जो दीर्घजीवन चाहे वह दो से अधिक यज्ञोपवीत पहन सकता था।
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आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनुवादक - डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व - अड़तीसवाँ, पृ. २४६, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण : २०००
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३५६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय- बारहवाँ, पृ. १६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन् १९२२ ३६० 'आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनुवादक - डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ. २४६, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण : २०००
३६१ देखे धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय ७, पृ. २१८, उत्तरप्रदेश, हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८०
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत ( प्रथम विभाग), उदय - बारहवाँ, पृ. १६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन्
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आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनुवादक सातवाँ संस्करण
२०००.
३६४ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय ७, पृ. २१८, उत्तरप्रदेश, हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८०
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डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व - अड़तीसवाँ, पृ. ३११, भारतीय ज्ञानपीठ,
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