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________________ 166 साध्वी मोक्षरत्ना श्री इस प्रकार श्वेताम्बर - परम्परा में ये दो मंत्र बताए गए हैं। वैदिक परम्परा में दाहिना कर्णछेदन करते समय “हम अपने कानों से भद्रवाणी सुने” एवं बायाँ कर्णछेदन करते समय " वक्ष्यन्ति" आदि मंत्रोचार किए जाते हैं। ऐसा उल्लेख मिलता है । ३२८ वैदिक परम्परा में आचारदिनकर की भाँति शूद्रों के लिए अलग से किसी मंत्र का विधान नहीं मिलता है। - आचारदिनकर के अनुसार कर्णछेदन के पश्चात् शिशु को उपाश्रय में ले जाकर मण्डलीपूजा करते हैं और यतिगुरु से विधिपूर्वक वासक्षेप डलवाकर शिशु को घर ले जाते हैं, फिर कर्ण - आभरण पहनाते है। इस प्रकार का विधान वैदिक परम्परा में नहीं मिलता है। आचारदिनकर के अनुसार इस अवसर पर यतिगुरु को चतुर्विध आहार, वस्त्र, पात्र, आदि का दान देने का तथा गृहस्थ गुरु को भी स्वर्ण, वस्त्र आदि का दान देने का विधान है। वैदिक परम्परा में ब्राह्मण भोजन का विधान मिलता है। उत्तरकालीन साहित्य में लेखकों ने इस संस्कार के अनेक विधि-विधानों को जोड़कर इस संस्कार को थोड़ा विस्तृत कर दिया है। आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इस संस्कार के लिए जिस प्रकार आवश्यक सामग्री का निर्देशन दिया है, उस प्रकार का उल्लेख वैदिक साहित्य के प्राचीन ग्रन्थों में हमें देखने को नहीं मिला। इस प्रकार दोनों परम्पराओं में किए जाने वाले इस संस्कार के विधि-विधानों में भिन्नता है, लेकिन दोनों का ध्येय कर्णछेदन करना ही है। उपसंहार इस प्रकार तुलनात्मक विवेचन के बाद जब हम इस संस्कार की उपादेयता के बारे में विचार करते हैं, तो हम पाते हैं कि यह संस्कार मात्र कर्ण के अलंकरण (शोभा) के लिए ही नहीं किया जाता था, अपितु इसके पीछे एक प्रयोजन यह भी रहा होगा कि इस संस्कार को करने से शिशु की रोग आदि से रक्षा होती है। ऐसी मान्यता थी कि अण्डकोशवृद्धि एवं आन्त्रवृद्धि के निरोध के लिए यह संस्कार करना चाहिए। वर्तमान में एक्यूपंचर के चिकित्सक भी इस बात को स्वीकार करते हैं, कि कर्णछेदन से रोगों का निरोध होता है। हर व्यक्ति अपने जीवन का हर पल खुशी में, सुख में व्यतीत करना चाहता है, वह किसी रोग का दुःख या त्रास सहन करना नहीं चाहता । अतः रोगों की रोकथाम करने में भी इस संस्कार की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस प्रकार इस संस्कार की उपादेयता स्वतः ही ३२८ देखे - हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-षष्ठ (षष्ठ परिच्छेद), पृ. १३२, चौखम्भा विद्याभवन, पांचवाँ संस्करण १९६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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