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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 165 की पूजा की जाती है। तत्पश्चात् कुल-परम्परा के अनुसार कुलदेवता के स्थान पर या अन्य किसी जगह पर जाकर कर्णवेध का कार्य किया जाता है।३१ वैदिक-परम्परा में इस सम्बन्ध में मात्र मातृकापूजन एवं गणेशपूजन का ही उल्लेख मिलता है।३२२ वैदिक-परम्परा में यह संस्कार कहाँ किया जाए, इस सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं मिलता है। आचारदिनकर के अनुसार २३ नैवेद्य आदि बनाने का कार्य भी कुलदेवता के स्थान पर जाकर ही किया जाता है। वहाँ गीत, गान, मंगलाचार आदि सब कार्य भी कुल-परम्परा के अनुसार ही किया जाता है और उसी स्थान पर बालक को सुखासन में पूर्वाभिमुख बैठाकर उसका कर्णछेदन करते हैं। वैदिक-परम्परा में आचारदिनकर की भाँति कुलदेवता आदि की कोई विशेष चर्चा नहीं है। वैदिक-परम्परा में कात्यायनसूत्र के अनुसार शिशु को पूर्वाभिमुख बैठाकर उसे कुछ मिठाई दी जाती है, फिर मंत्रोच्चार के साथ शिशु का दाहिना कान छेदा जाता है। सुश्रुत के अनुसार२२५ शिशु को माता या धाय की गोद में बैठाकर यह संस्कार किया जाना चाहिए। श्वेताम्बर-परम्परा में एवं वैदिक-परम्परा में इस संस्कार के समय बोले जाने वाले मंत्रों में भी मतभेद हैं। श्वेताम्बर-परम्परा में कर्णछेदन के समय निम्न मंत्र बोला जाता है२६ - “ॐ अहँ श्रुतेनांगैरूपांगैः कालिकैरूत्कालिकैः पूर्वगतैश्चूलिकाभिः परिकर्मभिः सूत्रैः पूर्वानुयोगैः छन्दोभिलक्षणैर्निरूक्तैर्धर्मशास्त्रविद्धकर्णीभूयात् अर्ह ऊँ।।" यहाँ वर्धमानसूरि ने शूद्रों के लिए अलग मंत्र बताया है, जो निम्न प्रकार से है३२७ “ऊँ अहं तव श्रुतिद्वयं हृदयं धर्माविद्धमस्तु।" ३२" आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-दसवाँ, पृ.-१७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन् १६२२ २२२ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास, (प्रथम भाग), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-१८, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण १६८०. २२२ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-दसवाँ, पृ.-१७ ठ, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन् १६२२. ३२४ देखे - हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-षष्ठ (षष्ठ परिच्छेद), पृ.-१३२, चौखम्भा विद्याभवन, पांचवाँ संस्करण १६६५ ३२५ देखे - हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-षष्ठ (षष्ठ परिच्छेद), पृ.-१३३, चौखम्भा विद्याभवन, पांचवाँ संस्करण १६६५ ३२६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-दसवाँ, पृ.-१७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन् १९२२. १० आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-दसवाँ, पृ.-१७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन् १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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