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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 149 नामकरण-संस्कार नामकरण-संस्कार का स्वरूप - इस संस्कार के द्वारा एक नियमित समयावधि के पश्चात् शिशु का नामकरण किया जाता है। जन्म के पश्चात् शिशु को किस नाम से बुलाया जाए, इस समस्या का निवारण करने के लिए ही शिशु का नामकरण-संस्कार किया जाता है, क्योंकि संसार के प्रायः सभी व्यवहार नाम के आधार पर ही चलते हैं। व्यक्ति की पहचान के लिए तथा अन्य व्यक्तियों से पृथक्करण हेतु विशिष्ट तथा निश्चित नाम की आवश्यकता होती है। नाम के बिना सभ्य समाज में व्यवहार का संचालन असंभव होता है। यही कारण है कि नामकरण की प्रथा को एक धार्मिक-संस्कार के रूप में स्वीकार किया गया। जैन और हिन्दू- इन दोनों परम्पराओं में इस संस्कार को एकमत से माना गया है। जब हम इस संस्कार को करने के पीछे क्या प्रयोजन रहा है- इस सम्बन्ध में भी विचार करते हैं, तो इस संस्कार का प्रयोजन एवं महत्व स्वतः ही प्रकट हो जाता है। नाम समस्त व्यवहार का हेतु है। नाम के अभाव में कोई भी व्यवहार संभव नहीं है, चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो तथा व्यापार का क्षेत्र हो, या शासकीय व्यवस्था का प्रश्न हो, नाम के बिना काम नहीं चलता है। नाम से ही व्यक्ति को कीर्ति प्राप्त होती है, अतः नामकरण- संस्कार अत्यन्त प्रशस्त एवं आवश्यक है। भारतीय-परम्परा में शिशु को जन्मलग्न एवं ग्रह की स्पष्ट स्थिति देखकर ही विशिष्ट नाम दिया जाता है। इस संस्कार में ग्रहों की पूजा की जाती है, ताकि वह लग्न के अधिपति ग्रहों की कृपा को प्राप्त कर सके एवं जीवन में यश, कीर्ति एवं सफलता को प्राप्त कर सके। नामकरण व्यक्ति के जीवन का अत्यन्त महत्वपूर्ण पक्ष है, क्योंकि नाम की राशि के आधार पर ही व्यक्ति के भावी जीवन के शुभाशुभत्व की भविष्यवाणी की जाती है, जो व्यक्ति के व्यवहार की प्रेरक होती है। श्वेताम्बर-परम्परा, दिगम्बर-परम्परा एवं वैदिक-परम्परा में यह संस्कार किया जाता है, यह बात भिन्न है कि यह संस्कार कब किया जाए। इस सम्बन्ध में कुछ मतभेद हैं। श्वेताम्बर-परम्परा में यह संस्कार शुचिकर्म के दिन, अथवा उसके दूसरे या तीसरे दिन, अथवा अन्य कोई शुभ दिन देखकर यह संस्कार करने का विधान है। ७२ दिगम्बर-परम्परा में यह संस्कार जन्म के बारह दिन बाद २७३ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-आठवाँ, पृ.-१४, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन् १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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