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________________ 148 साध्वी मोक्षरत्ना श्री और भाइयों को १ दिन का अशौच होता है, किन्तु यदि शिशु का जन्म स्त्री के श्वसुरपक्ष में हो, तो उसके माता-पिता और भाइयों को अशौच नहीं होता, किन्तु हर परिस्थिति में सगोत्र को तो जननाशीच होता ही है। इस प्रकार से बालक का जन्म कहाँ हुआ है, इस पर भी अशौच की स्थिति निर्भर करती है। फिर भी, इतना तो निश्चित है कि चाहे इसे कोई स्वतंत्र संस्कार माने या न माने, परन्तु जननाशौच का निवारण तो सभी परम्पराओं में आवश्यक माना है और शुचिकर्म-संस्कार का सम्बन्ध उसी से है। उपसंहार - सामान्यतया, इस बात में तो किसी को कोई मतभेद नहीं हो सकता है कि जिस स्थान पर प्रसव की घटना घटित होती है, उस स्थान पर अशुचि का होना स्वाभाविक है, किन्तु जो भी अशुचि होती है, उसका निवारण तो सामान्यतः तत्काल ही कर दिया जाता है, फिर अग्रिम दिनों में अशौच मानने का क्या कारण है ? यह विचारणीय है। हमारी दृष्टि में एक तो सूतक का कारण यह है कि शिशु के प्रसव के साथ जो अशुचि उत्पन्न होती है, चाहे उसका निवारण तत्काल कर दिया जाए, किन्तु नाल को काटने के कारण बालक एवं रक्तस्राव के कारण उसकी माता की अशुचि तो अनेक दिनों तक बनी रहती है, अतः उस अशुचि के समाप्त होने तक अशौच को मानना आवश्यक है। इसके पीछे हमें एक कारण यह भी समझ में आता है कि नवजात शिशु व उसकी माता को प्रसवकाल के कुछ समय पश्चात् तक भी संक्रामक रोगों से ग्रस्त होने की संभावना बनी रहती है। अशौच की अवधारणा के कारण अन्य लोगों से और अन्य स्थानों से माता एवं शिशु का संस्पर्श बचा रहता है और इस प्रकार अशौच या सूतक के कारण बालक और सद्यःप्रसूता स्त्री अनेक संक्रामक रोगों से बच जाते हैं। इस प्रकार यह संस्कार बाह्य-पवित्रता या बाह्यशुद्धि तथा बालक और उसकी माता को संक्रामक रोगों से बचाने के लिए अति उपयोगी माना जा सकता है। यद्यपि इतना निश्चित है कि पूर्व में जब तक अशुचि का निवारण नहीं होता, तब तक बाह्यशुद्धि के प्रति जो उपेक्षाभाव था, वह समुचित नहीं माना जा सकता। वर्तमान युग में हमें इस संस्कार को बालक और उसकी माता को संक्रामक रोगों से बचाने हेतु और उसकी दैहिक-शुचिता को बनाए रखने के लिए आवश्यक मानना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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