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वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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महत्व है। सूर्य-चन्द्र प्रकाश के पुंज हैं, इसलिए बालक को प्रकाश एवं बाह्यजगत् से परिचित कराने हेतु यह संस्कार किया जाता होगा- ऐसा हम मान सकते हैं।
__इसका दूसरा कारण हम यह भी मान सकते हैं कि जिस प्रकार सूर्य तेजस्वी एवं गतिशील है तथा चन्द्रमा सौम्यता एवं शान्ति को देने वाला है, उसी प्रकार यह बालक भी इन गुणों को प्राप्त करे- ऐसी कामना से यह संस्कार किया जाता होगा।
क्षीराशन-संस्कार क्षीराशन-संस्कार का स्वरूप -
जिस संस्कार में क्षीर, अर्थात् दुग्ध का आहार कराया जाता है, उसे क्षीराशन-संस्कार कहते हैं। यह संस्कार नवजात शिशु को विधि-विधानपूर्वक दुग्धपान कराए जाने से सम्बन्धित है।
नवजात शिशु के लिए सबसे पौष्टिक आहार यदि कुछ है, तो वह हैदूध, जिसे नवजात शिशु का पाचनतंत्र भलीभाँति पचा सकता है, इसलिए सर्वप्रथम शिशु को माता के दुग्ध का पान कराया जाता है।
इस संस्कार में शिशु को मंत्रोच्चार के साथ दुग्धपान कराया जाता है। मंत्रोच्चार से शुद्ध तरंगें किसी-न-किसी रूप में शिशु को प्रभावित करती हैं। सामान्यतया, इस संस्कार के पीछे यह मान्यता रही होगी कि माता और पिता की तरह शिशु में भी सात्विकता, धैर्य, शूरवीरता एवं पराक्रम आदि गुणों का न्यास हो। इस संस्कार को करने का दूसरा कारण हम यह भी मान सकते हैं - प्रत्येक माता अपने पुत्र की दीर्घ-आयुष्य की कामना करती है, इसलिए वह अमृतमंत्र के जल से सिंचित स्तनों का पान ही शिशु को कराना चाहती है तथा यह कामना करती है कि उसका यह दुग्धपान अमृत के समान बन जाए और शिशु दीर्घ-आयुष्य को प्राप्त करे। इसी प्रयोजन को लेकर ही यह संस्कार किया जाता रहा होगा- ऐसा हम मान सकते हैं।
__ आचारदिनकर के अनुसार श्वेताम्बर-परम्परा में यह संस्कार सूर्य-चन्द्रदर्शन के दिन, अर्थात् जन्म के तीसरे दिन विधि-विधानपूर्वक करवाया जाता है।५६ वर्धमानसूरि द्वारा प्रतिपादित आचारदिनकर में इसकी सम्यक् विधि बताई गई है।
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२५६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-पांचवाँ, पृ.-१२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन्
१६२२.
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