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दशम अध्याय : समास 'समास' ( सम्+अस्+घञ् ) शब्द का अर्थ है-'संक्षेप' अर्थात् जब दो या दो से अधिक शब्दों ( सुबन्त पदों ) को आपस में इस प्रकार जोड़ दिया जाता है कि शब्द का आकार छोटा होने पर भी उसके अर्थ में परिवर्तन नहीं होता है, तो उसे समास कहते हैं ( समसनम् एकपदीभवनं समासः ) । समास होने पर प्रायः पूर्वपद की विभक्ति का लोप कर दिया जाता है। जैसे-गुरुणो समीवं-उवगुरु ( गुरु के समीप ), जम्मि देशे बहवा वीरा सन्ति सो देसो - बहुवीरो देसो ( जिस देश में बहुत से वीर हैं, वह देश ), राइणो पुरिसोरायपुरिसो ( राजपुरुषः )।
लोक भाषा में समास शैली का प्रचार बहुत कम था परन्तु साहित्यिक प्राकृत भाषा में संस्कृत पण्डितों के प्रभाव के कारण समास शैली का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। प्राकृत वैयाकरणों ने कारक के समान ही समास का संस्कृत से पृथक् विधान नहीं किया है। अत: संस्कृत भाषा के समान ही प्राकृत भाषा के समास विधान को समझना चाहिए ।
समास और विग्रह में अन्तर-जब समस्तपद के शब्दों को विभक्ति के द्वारा अलग-अलग करके दर्शाया जाता है तो उसे 'विग्रह' कहते हैं। जैसेधम्मस्स पुत्तो धम्मपुत्तो (धर्मपुत्रः ) । यहां 'धम्मस्स पुत्तो' यह विग्रह वाक्य है और 'धम्मपुत्तो' यह समस्त पद है। __समास के भेद-समास में आये हुए शब्दों की प्रधानता और अप्रधानता के आधार पर समास के प्रमुख छ: (४+२) भेद हैं-(१) अव्वईमाव ( अध्ययीभाव )-इसमें पूर्व पदार्थ अव्यय की प्रधानता होती है। (२)तपुरिस (तत्पुरुष )-इसमें उत्तर पदार्थ की प्रधानता होती है । इसके प्रमुख दो भेद हैं-( क ) वधिकरण तप्पुरिस ( व्यधिकरण तत्पुरुष या द्वितीयादि तत्पुरुष या सामान्य तत्पुरुष ) और ( ख ) समानाधिकरण तप्पुरिस ( समानाधिकरण तत्पुरुष या प्रथमा तत्पुरुष ) । इसके वो अवान्तर भेद हैं-कम्मधारय ( कर्मचारय=विशेषणविशेष्यभाव प्रथमा तत्पुरुष ) और · विगु (द्विगु- संख्यापूर्व
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