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कारक एवं विभक्ति ]
भाग १ : व्याकरण
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(१) दान-कर्म के द्वारा कती जिसे सन्तुष्ट करना चाहता है, उसमें' (सम्प्रा दान कारक में)। जैसे-विप्पाय विप्परस वा गावं देइ (विप्राय गां ददाति ब्राह्मण के लिए गाय दान में देता है )।
(२) रुच्यर्थक धातुओं के योग में प्रसन्न होने वाले में । जैसे-हरिणो रोयइ भती ( हरये रोचते भक्तिः हरि को भक्ति अच्छी लगती है)। तस्स वाआ मशं न रोयइ ( तस्य वार्ता मह्यं न रोचते-उसकी बात मुझे अच्छी नहीं लगती है ) । बालकस्स मोअआ रोअन्ते (बालकाय मोदकाः रोचन्ते बालक के लिए लड्डू अच्छे लगते हैं ) ।
(३) 'कर्ज लेना' धातु के योग में ऋण देने वाले में । जै:-सामो अस्सपइणो सयं धरइ ( श्यामः अश्वपतये शतं धारयति = श्याम ने अश्वपति से एक सौ रुपया उधार लिया)। भत्ताय भत्तस्स वा धरइ मोक्खं हरी ( भक्ताय धारयति मोक्षं हरि: भक्त के लिए हरि मोक्ष के ऋणी हैं)।
(४) सिह ( स्पृह ) धातु के योग में जिसे चाहा जाये, उसमें । जैसेपुष्फार्ण सिहइ ( पुष्पेभ्यः स्पृहयति = फूलों को चाहता है)।
(५) कुज्झ ( क्रुध् ), दोह ( Qह, ), ईस ( ईय॑ ) तथा असूअ ( असूय ) धातओं के योग में तथा इनके समान अर्थ वाली धातुओं के योग में जिसके ऊपर क्रोधादि किया जाये, उसमें'। जैसे-हरिणो कुज्झइ दोहई ईसइ असूअइ वा (हरये क्रुध्यति द्रुह्यति ईय॑ति असूयति वा-हरि के ऊपर क्रोध करता है, द्रोह करता है, ईर्ष्या करता है, असूया करता है)। १. कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम् । चतुर्थी सम्प्रदाने। अ० १ ४. ३२;
२. ३. १३. २. रुच्यार्थानां प्रीयमाणः । अ० १. ४. ३३. ३. धारेरुत्तमर्णः । अ० १.४.३५. ४. स्पृहेरीप्सितः । अ० १. ४. ३६. ५. ऋद्र हेासूयार्थानां यं प्रति कोपः । अ० १. ४. ३७.
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