SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० ] प्राकृत-दीपिका [ नवम अध्याय (६) नमो, सुत्थि ( स्वस्ति ), सुआहा ( स्वाहा ), सुहा ( स्वधा ) तथा अलंके योग में । जैसे- हरिणो नमो ( हरये नमः हरि के लिए नमस्कार ) | आणं सुत्थि (प्रजाभ्यः स्वस्ति = प्रजा का मङ्गल) । पिअराणं सुहा । ( पितरेभ्यः स्वधा - पितरों को दान ) । अलं महावीरो मल्लस्स ( अलं महावीरो मल्लाय = मल्ल के लिए महावीर पर्याप्त है ) । R (७) परिक्रयण ( निश्चित समय के लिए किसी को वेतन आदि पर रखना) में जो करण होता है, उसमें (तृतीया भी विकल्प से होती है) २ । जैसे - सयेण सयरस वा परिकीणइ ( शतेन शताय वा परिक्रीणति सौ रुपये में परिक्रयण करता है ) । (८) जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य किया जाये, उस प्रयोजन में । जैसे - मुत्तिणो हरि भजढ (मुक्तये हरि भजति-मुक्ति के लिए हरि का भजन करता है ) । भत्ती णाणाय कप्पइ ( भक्तिः ज्ञानाय कल्पते - भक्ति ज्ञान के लिए है ) । (९) हिअ ( हित ) और सुह (सुख) के योग में ४ । जैसे -- बंजणस्स हिअं सुहं वा ( ब्राह्मणाय हितं सुखं वा ब्राह्मण के लिए हितकर अथवा सुखकर ) । पञ्चमी विभक्ति 1 निम्न स्थलों में पञ्चमी विभक्ति होती है- (१) जिससे किसी वस्तु का अलगाव हो (अपादान कारक ), उसमें" । जैसेधावतो असतो पडइ ( धावतः अश्वात् पतति = दौड़ते हुए घोड़े से गिरता है ) । (२) दुगुच्छ (जुगुप्सा), विराम, पमाय (प्रमाद) तथा इनके समानार्थक शब्दों के योग में जिससे जुगुप्सा आदि हो, उसमें । जैसे- पावतो दुगुच्छइ विरमइ ( पापाज्जु १. नमः स्वस्तिस्वाहास्वधालंवषड्योगाच्च । अ० २. ३. १६. २. परिक्रयणे सम्प्रदानमन्यतरस्याम् | अ० १. ४. ४४. ३. तादर्थ्यं चतुर्थी वाच्या । वार्तिक । ४. हितयोगे च । वार्तिक । ५. ध्रुवमपायेऽपादानम् । अपादाने पञ्चमी । अ० १.४.२४ ; २.३.२८. ६. जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम् । वार्तिक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy