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प्राकृत - दीपिका
[ नवम अध्याय
कर्मवाच्य के कर्ता में तृतीया और कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है; शेष सम्प्रदान आदि कारक कर्तृवाच्य के ही समान प्रयुक्त होते हैं । इस तरह कर्ता में सर्वदा प्रथमा और कर्म में सर्वदा द्वितीया विभक्ति ही नहीं होती है, अपितु कर्ता में तृतीया और कर्म में प्रथमा भी होती है । कर्ता और कर्म में ( कृदन्तक्रिया का प्रयोग होने पर ) षष्ठी विभक्ति भी देखी जाती है ।
वस्तुतः वैयाकरणों के शाब्दबोध के नियमानुसार प्रथमा विभक्ति । प्रिया से सीधा
प्रातिपदिकार्थ' में होती है, कर्ता में नहीं । षष्ठी विभक्ति सम्बन्ध न होने के कारण उसे कारक नहीं कहा जाता है । सातों विभक्यिों के प्रयोग सम्बन्धी नियम निम्न हैं-
प्रथमा विभक्ति
निम्न स्थलों में प्रथमा विभक्ति होती है" -
(क) प्रातिपदिकार्थमात्र में - जब शब्द के केवल अर्थ का बोध कराना अभीष्ट हो । जैसे—जिणो, वाऊ, सयंभू, णाणं आदि । (ख) निङ्गमात्र के आधिक्य में -- इसके वे शब्द उदाहरण होंगे जो अनियतलिंग ( विशेष्य के अनुसार जिनका लिंग बदल जाता है ) वाले हैं । जैसे --तडो तडी तडं । जो नियतलिंग वाले शब्द हैं वे प्रातिपदिकार्थ के उदाहरण हैं । (ग) परिमाणमात्र में परिमाण वाचक शब्दों से जब परिमाण सामान्य का बोध कराना अभीष्ट होता है । जैसे- - दोणो वीही ( द्रोणो व्रीहिः = द्रोण नामक बटखरे से नपा हुआ धान्य ) । (घ) बचन मात्र में - जब संख्यावाचक शब्दों से १. शब्द का उच्चारण करने पर जिस अर्थ की नियत - प्रतीति हो उसे प्रातिपदिक ( Base or Crude form ) का अर्थ कहते हैं 'नियतोपस्थितिकः प्रातिपदिकार्थः' अर्थात् जब किसी शब्द से उसके अर्थ मात्र का ज्ञान कराना अभीष्ट होता है ( कर्ता आदि का नहीं ) तो वहाँ प्रतिपादिकार्थ में प्रथमा विभक्ति होती है ।
२. प्रातिपदिकार्यलिङ्ग परिमाणवचनमात्रे प्रथमा । सम्बोधने च ।
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अ० २. ३. ४६-४७.
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