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________________ कारक एवं विभक्ति। भाग १: व्याकरण [६३ क्योंकि विभक्ति शब्द का अर्थ है-'जिसके द्वारा संख्या और कारक का बोध हो' (संख्याकारकबोधयित्री विभक्तिः)। जो किसी न किसी रूप में क्रिया का साधक (निवर्तक) होता है, वह कारक कहलाता है । निम्न छः कारक हैं १. कर्तृ कारक-क्रिया का प्रधान सम्पादक अर्थात् जो क्रिया के करने में स्वतंत्र होता है और धात्वर्थ के व्यापार का आश्रय होता है। २ कर्मकारक-क्रिया के फल का आश्रय अर्थात् क्रिया के द्वारा कर्ता . जिसे विशेषरूप से प्राप्त करना चाहता है। ३. करण कारक-क्रिया के सम्पादन में प्रमुख सहायक (साधकतम)। ४. सम्प्रदान कारक-क्रिया का उद्देश्य अर्थात् जिसके लिए क्रिया की जाए या कुछ दिया जाए । प्राकृत में इस कारक के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है (अपवाद के रूप में चतुर्थी विभक्ति का भी प्रयोग मिलता है)। ५. अपादान कारक-क्रिया का विश्लेष अर्थात् जिससे कोई वस्तु अलग हो। ६ अधिकरण कारक-क्रिया का आधार अर्थात् क्रिया जिस स्थान पर हो। कारकों का सम्बन्ध बाह्य जगत् के पदार्थों से है क्योंकि बाह्य जगत् में जो क्रिया होती है उसे निष्पन्न करने वाले पदार्थ कारक कहे जाते हैं। विभक्तियाँ भिन्न-भिन्न कारकों को प्रकट करती हैं और उनका सम्बन्ध बाह्य जगत् के पदार्थों से न होकर शब्द रूपों से है । द्वितीयादि विभक्तियाँ कारकों के अतिरिक्त उपपदों के साथ भी प्रयुक्त होती हैं। अत: उन्हें दो भागों में विभक्त किया जाता है--(१) कारक विभक्ति ( क्रिया को उद्देश्य करके प्रयुक्त होने वाली) और (२) उपपाद विभक्ति (अव्यय आदि पदों को उद्देश्य करके प्रयुक्त होने वाली)। दोनों में कारक विभक्ति बलवान् मानी गई है। ___सामान्यतः कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा, कर्म में द्वितीया, करण में तृतीया, सम्प्रदान में चतुर्थी, अपादान में पञ्चमी, स्व-स्वामिभाव आदि सम्बन्धों में षष्ठी तथा अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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