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अध्याय
६२]
प्राकृत-दीपिका
[नवम अध्याय और तृतीया के स्थान पर सप्तमी होती है। जैसे-(क) गामे वसामि ( ग्राम वसामि - गाँव में रहता हूँ)। नयरे न जामि ( नगरं न यामि = नगर को नहीं जाता हूँ)। (ख) मइ वेविरीए मलिआई (मया वेपित्रा मृदितानि - कांपती हुई मेरे द्वारा मृदित किये गये )। तिसु तेसु अलंकिया पुहवी ( त्रिभिः तैरलंकृता पृथ्वी = उन तीनों के द्वारा पृथ्वी अलंकृत हुई है )।
(४) पश्चमी के स्थान पर तृतीया और सप्तमी'-कभी-कभी पञ्चमी के स्थान पर तृतीया एवं सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे--(क) चोरेण बीहइ (चोराद् बिभेति - चोर से डरता है)। (ख) विज्जालयस्मि पढिउं आगओ बालो ( विद्यालयात् पठित्वा आगतो बाल: = विद्यालय से पढ़कर बालक आ गया है)।
(३) सप्तमी एवं प्रथमा के स्थान पर द्वितीया-सप्तमी के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया होती है। प्रथमा के स्थान पर भी सप्तमी देखी जाती है। जैसे-(क) विज्जुज्जोयं भरइ रत्ति (विद्यु ज्ज्योतं स्मरति रात्री- रात्रि में विद्युत के प्रकाश का स्मरण करता है)। (ख) चउवीसंपि जिणवरा (चतुर्विशतिरपि जिनवरा:- चौबीस तीर्थङ्कर भी)।
(६) सप्तमी के स्थान पर तृतीया--आर्ष प्राकृत ( अर्धमागधी ) में सप्तमी के स्थान पर तृतीया भी देखी जाती है। जैसे--तेणं कालेणं, तेणं समएणं ( तस्मिन् काले तस्मिन् समये - उस समय में )। विभक्ति सम्बन्धी सामान्य नियम
संस्कृत में छः कारक और सात विभक्तियाँ मानी जाती हैं। सम्बोधन अलग विभक्ति नहीं है, अपितु प्रथमा ही है । षष्ठी को कारक नहीं माना जाता है उसे केवल विभक्ति माना जाता है। कारकों का विभक्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध है १. पञ्चम्यास्तृतीया च । हे० ८. ३. १३६. २. सप्तम्या द्वितीया । हे० ८. ३. १३७ तथा वृत्ति । ३. वही।
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