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कारक एवं विभक्ति ]
भाग १: व्याकरण
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संख्या-सामान्य का बोध करना अभीष्ट होता है। जैसे-एको ( एकः ), बहू (बहवः ) । (ङ) सम्बोधन में-वक्ता का स्रोता को अपनी बात सुनने के लिए अपनी ओर आकृष्ट करना । जैसे- हे देवो ( हे देव )।
द्वितीया विभक्ति निम्न स्थलों में द्वितीया विभक्ति होती है
(१) कर्तृवाच्य के अनुक्त कर्म (कर्ता का जो अभीष्टतम हो) में । जैसेमासेसु अस्सं बंधइ (माषेषु अश्वं बध्नाति-उड़द के खेत में घोड़े को बाँधता है)। पयेण ओदनं भुजइ ( पयसा ओदनं भुङक्ते-दूध से भात खाता है ) । यहाँ कर्ता को यद्यपि 'ओदन' और 'पयस्' दोनों अभीष्ट हैं परन्तु अभीष्टतम केवल 'जोदन' है, अतः उसी में कर्मसंज्ञा होने से द्वितीया हुई है। प्रथम उदाहरण में बांधने की क्रिया के द्वारा कर्ता अश्व को वशवर्ती करना चाहता है । अतः कर्ता को बन्धन-व्यापार द्वारा अश्व ही अभीष्ट है, न की 'माष' । 'भाष' तो कर्म. संशक अश्व के लिए अभीष्ट है। इसी प्रकार--हरि भजइ ( हरि भजति हरि को भजता है)। गामं गच्छइ (ग्रामं गच्छति गांव को जाता है)।
(२) द्विकर्मक धातुओं का प्रयोग होने पर गौण कर्म(अकथित अविवक्षित) में, यदि गौण कर्म में अपादान आदि की विवक्षा न हो। जैसे-माणवों पहं १. कर्तुरीप्सिततमं कर्म । कर्मणि द्वितीया । अ० १. ४. ४९:२. ३.२. २. दुह्याच्पच्दण्ड्रधिप्रच्छिचिब्रूशासुजिमथ्मुषाम् । कर्मयुक् स्यादकथितं तथा स्यान्नीकृष्वहाम् ॥
अर्थ-दुह, (दुहना), याच् (माँगना), पच् (पकाना), दण्ड् (दण्ड देना), रुध् (रोकना); प्रच्छ (पूछना), चि (चुनना ), ब्रू (कहना), शास् (शासन करना), जि ( जीतना), मथ् ( मथना ), मुष (चुराना ); नी (ले जाना), ह (हरना), कृष् (खींचना ) और वह ( ढोना ) ये १६ धातुयें द्विकर्मक हैं। इनके अतिरिक्त इनके समान अर्थवाली भिक्ष (मांगना), भाष
(कहना) आदि धातुयें भी द्विकर्मक हैं। ३. अकथितं च । अ० १.४. ५१.
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