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________________ अष्टम अध्याय : अव्यय एवं उपसर्ग (क) अव्यय___ अव्यय पद हमेशा सभी विभक्तियों, सभी वचनों और सभी लिङ्गों में अविकृत होते हैं। कुछ अव्यय तो संस्कृत-अव्ययों के स्वर-व्यञ्जन परिवर्तन के द्वारा बने हैं तथा कुछ स्वतन्त्र अव्यय हैं जो संस्कृत में नहीं मिलते हैं । उपसर्ग भी अव्यय होते हैं.। अतः उनका भी यहाँ निर्वचन किया गया है । अकारादि क्रम से कुछ प्रसिद्ध अव्ययम (च) और अण्णहा (अन्यथा) विपरीत मइ (अति ) अतिशय अण्णया ( अन्यदा) दूसरे समय अइ ( अयि ) सम्भावना अणंतरं ( अनन्तरम् ) पश्चात्, विना अइरं ( अचिरम् ) शीघ्र अप्पणो, सयं (आत्मनः, स्वयम्) खुद अइरेण ( अचिरेण ) अवरज्ज ( अपरेद्य : ) दूसरे दिन अईव ( अतीव ) अत्यधिक अभिक्ख, अभिक्खणं ( अभीक्ष्णम् ) अओ ( अतः ) इसलिए बारम्बार अकटटु ( अकृत्वा ) नहीं करके अभितो ( अभितः) चारों ओर अग्गओ ( अग्रतः ) आगे अम्मो-आश्चर्य अग्गे ( अग्रे) पहले अरे--रतिकलह ( अरे मए समं मा अच्चत्थं ( अत्यर्थम् ) अधिक अर्थ करेसु उवहा म अरे मया समं अज्ज ( अद्य) आज मा कुरु उपहासम् ) अण, णाई ( अन = न ) निषेध अलं ( अलम् ) बस, पर्याप्त । अण्णमण्णं, अण्णोण्णं, अन्नमन्नं, अन्नोन्नं अलाहि-निवारण (अलाहि किं वाइएण (अन्योन्यम् ) आपस में लेहेण-मा, कि वाचितेन लेखेन) १. देखें, हेमचन्द्र-व्याकरण ८. २. १७५ से २१८ तक। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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