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प्राकृत-दीपिका
। सप्तम अध्यायः
___ ङ. संस्कृत के जानपद कुण्ड, गोण, स्थल, भाग, नाग, कुश, कामुक आदि शब्दों में-जाणवदी जाणवदा ( जानपदी-वृत्तिश्चेद् वर्ततेऽनयेति जीविका, जानपदा जनपदवासिनी ), कुण्डी कुण्डा ( कुण्डी कमण्डलुः या जारजा स्त्री, कुण्डा दहनीया ), थली थला (स्थली आकृत्रिमा भुमिः, स्थला परिष्कृता भूमिः ); गोणी गोणा ( गोणी आवपनम् ओप्यते निक्षिप्यते धान्यं यस्मिन, गोणा-यादृच्छिक नाम ), भाजी भाजा ( भाजी पक्व, भा जा-अपक्व ), कुसी कुसा ( कुशी = लौह-विकार, कुशा - रस्सी ), कामुई कामुआ ( कामुकी मैथुनेच्छा वाली, कामुकाधनादि की इच्छावाली)।
च. बहुव्रीहि समास में अवयव-वाचक शब्द में--चंदमूही चंदमुहा ( चन्द्रमुखी ), सुएसी सुएसा ( सुकेशी )।
छ. धर्मपत्नी के अर्थ में--पाणिगहीदी (पाणिगृहीती ), अन्यत्र पाणिगहीदा ( पाणिगृहीता )।
(ग) 'ऊ' प्रत्यय-कही-कहीं आर्य शब्द में 'ऊ' जुड़ता है--अज्ज+ऊ-अज्जू अज्जआ (माया )
कुछ अन्य स्त्री-प्रत्ययान्त शब्द-गिहवइ >गिहवण्णी (गृहपत्नी), अहिवइ> अहिवण्णी (अधिपत्नी), सहा >सही (सखी), जुवा > जुवती (युवती), सुद्द >सुद्दा सुद्दी (शूद्री=शूद्रपत्नी, शूद्रा=जाति), तुअ>तुअंती (तुदन्ती तुदती व्यथित करती हुई), कुम्भआरो>कुम्भआरी (कुम्भकारी), सुवण्णआरो>सुवण्णरी (स्वर्ण। कारी ), बालओ>बालिआ ( बालिका ), पुरिसो>इत्थी ( स्त्री), माहणो> माहणी (ब्राह्मणी ), गोवो> गोवी गोवा ( गोपी गोपा ), मऊरो>मऊरी ( मयूरी ), पिओ>माआ (माता), भाया >बहिणी ( भगिनी ), सुत्तगारो> सुत्तगारी (सूत्रकारी), सीसो>सीसा ( शिष्या ), सेट्ठि>सेट्ठिणी (श्रेष्ठिनी), पइ >भज्जा (भार्या), बीयो>बीया (द्वितीया), निउणो>निउणा (निपुणा ), अयलो>अयलो ( अचला ), महिसो>महिसी (महिषी), अओ>अआ (अजा); संखपुप्फो >संखपुप्फी ( शंखपुष्पी ), तरुणो-तरुणी (तरुणी), णायओ=णायिका ( नायिका ), विउसो >विउसी (विदुषी)।
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