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________________ उवएसपया ] भाग ३ : सङ्कलन [ २२५ १०. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते इमम्मि लोए अदुवा परत्थ । दीवप्पणठे व अणंतमोहे नेयाउयं दद्रुमदठ्ठमेव ॥४.५ ।। ११. कुसग्गे जह ओसविंदुए थोवं चिट्ठइ लंबमाणए। एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम ! मा पमायए॥ १०२॥ १२. दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हो जस्स न होइ तण्हा । तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई॥ ३२.८॥ १०. वित्तेन त्राणं न लभते प्रमत्तः, अस्मिल्लोकेऽथवा परत्र । दीपप्रणष्ट इवानन्तमोहः, नैयायिकं दृष्ट्वा अदृष्ट्वेव ।। ११. कुशाग्रे यथावश्याय बिन्दुः, स्तोकं तिष्ठतिलम्बमानकः । एवं मनुजानां जीवितं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः । १२. दुःखं हतं यस्य न भवति मोहः, मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा । तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः, लोभो हतो यस्य न किञ्चन । दुर्लभ ( क्रमशः दुर्लभतर ) है-मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा तथा संयम में पुरुषार्थ । १०. प्रमत्त पुरुष धन के द्वारा न तो इस लोक में और न परलोक में अपनी रक्षा कर सकता है। जैसे दीपक के बुझ जाने पर मार्ग देखने पर भी दिखलाई नहीं पड़ता है उसी प्रकार असीम मोह से युक्त मनुष्य को न्यायमार्ग नहीं दिखता है। ११. जैसे कुशा के अग्रभाग पर ओस की बूंद थोड़ी ही देर तक रहती है वैसे ही मनुष्यों का जीवन भी है। अतः हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद मत करो। १२. उसने दुःख को नष्ट कर दिया जिसे मोह नहीं, उसने मोह को विनष्ट कर दिया जिसे तुष्णा नहीं, उसने तृष्णा को नष्ट कर दिया जिसे लोग नहीं तथा उसने लोभ को नष्ट कर दिया जिसके पास धनादि का संग्रह नहीं। १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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