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________________ २२४ ] प्राकृत-दीपिका [अर्धमागधी ६. अलोलुए अक्कुहए अमाई अपिसुणे यावि अदीणवित्ती। नो भावए नो वि य भावियप्पा अकोउहल्ले य सया स पुज्जो ।। (स) उत्तराध्ययन से ९.३.१०॥ ७. समया सव्वभूएसु सत्तुमिसेसु वा जगे। पाणाइवायविरई जावज्जीवाए दुक्करं ॥ १९.२६ ॥ 4. आणानिस करे गुरूण मुववायकारए । इंगियागारसंपन्ने से विणीए त्ति वुच्चइ ॥ १.२॥ ९. चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा संजमम्मि य वीरियं ।। ३१ ।। ६. अलोलुपः अकुहकः अमायी अपिशुनश्चापि अदीनवृत्तिः । नो भावयेत् नापि च भावितात्मा अकौतूहलश्च सदा सः पूज्यः ।। ७. समता सर्वभूतेषु, शत्रुमित्रषु वा जगति । प्राणातिपातविरतिः यावज्जीवं दुष्करा ॥ ८. आज्ञानिर्देशकरः, गुरूणामुपपातकारकः । इंगिताकारसम्पन्नः, स विनयीत्युच्यते ।। ९. चत्वारि परमांगानि, दुर्लभानीह जन्तोः। मनुष्यत्वं श्रुतिः श्रद्धा, संयमे च वीर्यम् ॥ ६. जो रसलोलुप नहीं हैं, जादू टोना आदि नहीं करता है, मायावी नहीं है, चुगलखोर नहीं है, दीन भाव से याचना करने वाला नहीं है, दूसरे से अपनी प्रशंसा सुनने की इच्छा नहीं करता है, स्वयं अपने मुख से अपनी प्रशंसा नहीं करता है, कौतूहल स्वभाव वाला नहीं है, वही पूज्य है। ७. संसार में सभी प्राणियों के प्रति चाहे वह शत्र हो या मित्र समभाव रखना तथा जीवन पर्यन्त प्राणियों की हिंसा से विरक्त रहना बहुत कठिन है। ८. जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, उनके पास रहता है, तथा उनके इंगितकारों ( इशारों ) को जानता है वही विनीत कहलाता है। ९. इस संसार में प्राणियों को इन चार श्रेष्ठ अंगों को प्राप्त करना अत्यन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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