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________________ भाग ३ : संकलन उवसपया ] वड्ढइ । २. जग नाव न पीडेइ वाही जाव न जाविदिया न हायंति ताव धम्मं समायरे ॥। ८.३६ ।। ३. दिट्ठे मियं असंदिद्धं पडिपुण्णं वियं जियं । । अयं पिरमणुविग्गं भासं निसिर अत्तवं ।। ८.४९ ।। ४. विवनी अविणीयस्स संपत्ती विणीयस्स य । जस्सेयं दुहओ नायं सिक्खं से अभिगच्छइ ।। ९.२.२२. ।। ५. कोहो पीडं पणासेइ माणो विजयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ लोभो सव्वविणासणो ।। ८.३८ । २. जरा यावन्न पीडयति व्याधिर्यावन्न वर्द्धते । यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते तावदधर्मं समाचरेत् ॥ ३. दृष्टां मितामसंदिग्धां प्रतिपूर्णां व्यक्तां विताम् । अजनशीलामनुद्विग्नां भाषां निसृजेदात्मनः ॥ ४. विपत्तिरविनीतस्य सम्पत्ति - ( सम्प्राप्ति ) विनीतस्य च । यस्यैतद द्विधा ज्ञातं शिक्षां सोऽभिगच्छति ॥ ५. क्रोध: प्रीति प्रणाशयति मानो विनयनाशनः । माया मंत्र्याणि नाशयति लोभः सर्वविनाशनः ॥ [ २२३ Jain Education International २. जब तक बुढ़ापा नहीं सताता है, रोग जब तक नहीं बढ़ते हैं और जब तक इन्द्रियाँ हीन ( अशक्त ) नहीं होती हैं तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए । ३. आत्मार्थी के लिए दृष्ट ( सत्य ), परिमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट अनुभूत, वाचलता-रहित और अनुद्वेगकारी वाणी को बोलना चाहिए । ४. ' अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है और विनीत को सम्पत्ति' जिसने ये दोनों बातें जान ली हैं वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है । ५. क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का विनाश करता है. माया मित्रता को नष्ट करती है और लोभ सभी सद्गुणों को समाप्त कर देता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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