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________________ २२२ ] उवएसो - प्राकृत - दीपिका अमंगलमुहस्सेवं रक्खणं धीमया कयं । सोच्चा तुम्हे तहा होह मईए कज्जसाहगा | ( अर्धमागधी ) (१०) उवएसपया १. धर्मो दशवेकालिक से १. धम्मो मंगलमुक्किट्ट अहिंसा संजमो तवो । देवा वितं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो ॥ १.१ ॥ उपदेश: अमङ्गलमुखस्येवं रक्षणं धीमता कृतम् । श्रुत्वा त्वं तथा भव मत्या कार्यसाधकः || संस्कृतछाया ( उपदेशपदानि ) मंगलमुत्कृष्टमहिंसा-संयमस्तपः । देवा अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः ॥ [ अर्धमागधी श्रीमान् आपके मुख का दर्शन कैसे फलवाला हुआ ? नगरवासी भी प्रातःकाल आपके मुख को कैसे देखेंगे ? इस प्रकार उसकी वचनयुक्ति से संतुष्ट हुए राजा ने उसके वध का निषेध करके तथा पुरस्कार देकर उस अमांगलिक को सन्तुष्ट किया । उपदेश इस प्रकार बुद्धिमान् के द्वारा अमंगलमुख वाले की रक्षा की गई । इसे सुनकर तुम भी बुद्धि के द्वारा कार्य की सिद्धि करने वाले होओ । Jain Education International हिन्दी अनुवाद ( उपदेश - पव ) १. धर्म मंगल उत्कृष्ट है जो अहिंसा, संयम और तप रूप है । जिसका मन सदा धर्म में लगा रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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