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प्राकृत-दीपिका
[ अर्धमागधी
१३. जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढइ ।
दोमासकयं कज्जं कोडीए वि न निट्ठियं ॥ ८.१२ ।। १४. सुवण्णरूप्पस्स य पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ।।
९.४८॥ १५. अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य । ____ अप्पा मित्तममित्तं य दुप्पट्ठिय-सुप्पट्ठिओ।। २०.३७ ।।
१३. यथा लाभस्तथा लोभः, लाभाल्लोभः प्रवर्धते ।
द्विमाषकृतं कार्य, कोटयाऽपि न निष्ठितम् ॥ १४. सुवर्णस्य रूप्यस्य च पर्वता भवेयुः, स्यात्खलु कैलाससमा असंख्यकाः ।
नरस्य लुब्धस्य न तैः किंचित्, इच्छा खलु आकाशसमा अनन्तिका ।। १५. आत्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च ।
आत्मा मित्रममित्रञ्च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थितः ।।
१३. जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। दो मासा सुवर्ण
की आवश्यकता होने पर भी अधिक मिलने पर करोड़ों सुवर्ण-मुद्राओं से भी आवश्यकता पूर्ण नहीं हुई।
१४. कैलास के समान सोने और चांदी के असंख्य पर्वत भी यदि पास में हों
तो भी लोभी मनुष्य की तृप्ति के लिये कुछ भी नहीं हैं क्योंकि इच्छा ( तृष्णा) आकाश के समान अनन्त है।
१५. आत्मा ही अपने दुःखों और सुखों का कर्ता और विकर्ता ( भोक्ता ) है।
अच्छे मार्ग पर चलने वाला आत्मा मित्र है और खराब मार्ग पर चलने बाबा आत्मा शत्रु है।
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