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________________ कल्लाणमित्तो] भाग ३ : सङ्कलन [ २१३ पवनवेरगमग्गो निग्गओ नयराओ, पत्तो य तापसजणजणियहिययपरिओसं सुपरिओसं नाम तवोवणं ति। इसिणा तओ अइक्कन्तेसु कइवयदिणेसु पसत्थे तिहिकरणमुहुत्तजोग-लग्गे दिन्ना से तावसदिक्खा। महापरिभवजणियवेरग्गाइसयभाविएण याणेण तम्मि चेव दिक्खादिवसे सयलतावसलोयारियरियगुरुसमक्खं कया महापइन्ना। जहा 'जावज्जीवं मए मासाओ चेव भोत्तव्वं, पारणगदिवसे य पढमपविणं पढमगेहाओ चेव लाभे वा अलाभे वा मियत्तियव्वं, न गेहन्तरमभिगन्तव्वं' ति । सुत्वरितत्वरितं हिण्डयनि । एवं प्रतिदिन कृतान्तेनेव तेन कदर्थ्यमानस्य तस्य वैराग्यभावना जाता । प्रपन्नवैराग्यमागो, निर्गतो नगरात्, प्राप्तश्च तापसजनजनितहृदयपरितोष सुपरितोषं नाम तपोवनमिति । ऋषिणा ततोऽतिक्रान्तेषु कतिपय दिनेषु प्रशस्ते तिथि-करणमुहूर्तयोग-लग्ने दत्ता तस्य तापसदीक्षा। महापरिभवजनितवैराग्यातिशयभावितेन चानेन तस्मिन्नेव दीक्षादिवसे सकलताफ्सलोकपरिचरितगुरुसमक्षं कृता महाप्रतिज्ञा । यथा--यावज्जीवं मया मासाद् एव भोक्तव्यम्, पारणकदिवसे च प्रथमप्रविष्टेन प्रथम-गृहाद् ( गेहाद् ) एव लाभे वाऽलाभे वा निवतितव्यम्, न गेहान्तरमभिगन्तव्यमिति । हुए, बहुत से प्रसन्न बालकों से घिरे हुए तथा महाराज शब्द से सम्बोधित करते हुए अनेक बार राजमार्ग पर जल्दी-जल्दी घुमाया करता था। इस प्रकार प्रतिदिन यमराज के समान उस कुमार के द्वारा पीड़ित किए जाते हुए उसके मन में वैराग्य की भावना उदित हुई । ___ वैराग्य के मार्ग को प्राप्त हुआ वह नगर से बाहर निकल गया। पश्चात् तपस्वियों के हृदय में परितोष (सन्तुष्टि) उत्पन्न करने वाले सुपरितोष नामक तपोवन को प्राप्त हुआ। इसके बाद कुछ दिनों के बीतने पर ऋषि ने शुभ तिथि, करण, मुहूर्त और लग्न में उसे तपस्वी की दीक्षा दी। घोर तिरस्कार से उत्पन्न अत्यधिक वैराग्य के कारण उस (अग्निशर्मा) ने दीक्षा के ही दिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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