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________________ २१४ ] प्राकृत-दीपिका [ जैन महाराष्ट्री इओं य पुण्णचन्दो राया कुमारगुणसेणं कयदारपरिग्गहं रज्जे अभिसिञ्चिऊण सह कुमुइणीए देवीए तवोवणवासी जाओ। सो य कुमारगुणसेणो अन्नया सह वसन्तसेणाए महादेवीए रज्जसोक्खं अणुहवन्तो आगओ वसन्तउरं। एत्थन्तरम्मि गहियनारङ्गक ढिणया आगया दुवे तापसकुमारया। दिठ्ठो य णेहि राया, अभिनन्दिओ य ससमयपसिद्धाए आसीसाए। अब्भुट्ठाणासणपयाणाइणा उवयारेण बहुमन्निया य राइणा । भणियं च णेहिं महाराय ! सुगिही यनामधेयेण ___ इतश्च पूर्णचन्द्रो राजा कुमारगुणसेनं कृतदारपरिग्रहं राज्येऽभिषिच्य सह कुमुदिन्या देव्या तपोवनवासी आतः । स च कुमारगुणसेनो अन्यदा सह वसन्तसेनया महादेव्या राज्यसौख्यमनुभवन् आगतो वसन्तपुरम् । अत्रान्तरे गृहीत. नारंगकठिनको आगतौ द्वौ तापसकुमारको। दृष्टश्च आभ्यां राजा, अभिनन्दितश्च स्वरामयप्रसिद्धया आशिषा। अभ्युत्थानासनप्रदानादिनःपचारेण बहमानितौ च राज्ञा। भणितं चाभ्याम्-महाराज ! सुविहितनामधेयेन आवां समस्त तपस्वियों से पूजित गुरु के समक्ष महाप्रतिज्ञा की - 'मैं जीवनपर्यन्त मास-मास के पश्चात् भोजन करूँगा तथा पारणे ( भोजन लेने ) के दिन जिस घर में सबसे पहले प्रवेश करूँगा उस प्रथम घर से [प्रथम बार में ] भिक्षा के प्राप्त होने अथवा न होने पर वापिस आ जाऊँगा, पुनः दूसरे घर नहीं जाऊँगा।' इधर राजा पूर्णचन्द्र कुमार गुणसेन का विवाह करके तथा राज्याभिषेक करके कुमुदिनी देवी के साथ तपोवनवासी हो गया। वह कुमार गुणसेन वसन्तसेना नामक महादेवी के साथ राज्यसुखों का अनुभव करता हुआ एक समय वसन्तपुर आया। इसी बीच नारंगियों की टोकरी लिए हुए दो तापसकुमार आये । उन्होंने राजा को देखा और अपनी प्रसिद्ध परम्परा के अनुसार आशीर्वाद के द्वारा राजा का अभिनन्दन किया। राजा ने भी अभ्युत्थान (उठकर खड़े होना), आसन-प्रदान आदि व्यवहार के द्वारा उनका सत्कार किया। उन्होंने (तापसकुमारों ने) कहा-'महाराज ! हमारे स्वनाम धन्य कुलपति ने चारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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