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________________ समुद्दवण्णणं ] भाग : ३ सङ्कलन [१८१ २. गअणस्स व पडिबिंबं धरणीअ व णिग्गमं दिसाण व णिलअं। भुअणस्स व मणितडिमं पल अस्स व सावसेस जलविच्छड्डं ॥२॥ ३. मुहलघणविप्पइण्णं जलणिवहं भरिअसलणहमहिविवरं । गइमुहपह्नत्यंत अप्पाण विभिग्गअं जसं व पिअंतं ॥ ५ ॥ ४. जोहाए व्व मिअङ्क कित्तीअ व सुरिसं पहाए व्व रवि । सेलं महाणईअ व सिरीअ चिरणिग्गआइ वि अमुच्चंतं ॥ ६ ॥ २. गगनस्येव प्रतिबिम्बं धरण्या इव निर्गमं दिशामिव निलयम् । भुवनस्येव मणितडिमं प्रलयस्येव सावशेष जलविच्छदम् । २ ॥ ३. मुखरघनविप्रकीर्णं जलनिवहं भृतसकलनभोमहीविवरम् । नदीमुवपर्यस्यन्तमात्मनो विनिर्गत यश इव पिबन्तम् ।। ५ ॥ ४. ज्योत्स्नयेव मृगाकं की येव सुपुरुषं प्रभयेव रविम् । शैलं महानद्य व श्रिया चिरनिर्गतयाप्यमुच्यमानम् ॥ ६ ॥ २. आकाश के प्रतिबिम्ब के समान, पृथ्वी के निर्गमद्वार के समान, दिशाओं के निलय ( घर ) के समान, त्रिभुवन की मणि-निर्मित भित्ति (परिखा ) अथवा प्राङ्गण ( तडिम कुट्टिमं भित्ती ) के समान तथा प्रलय के अवशेष जलसमूह के समान यह समुद्र दिखलाई दे रहा है। ३. गरजते हुए बादलों के द्वारा सर्वत्र विक्षिप्त, [ वृष्टिकाल में ] समस्त आकाश तथा पृथिवी में परिव्याप्त, नदियों के मुख से इधर-उधर बहने वाले जलसमूह को समुद्र अपने ही से निकले हुए यश को मानों पान कर रहा हो। ४. जिस प्रकार ज्योत्स्ना ( चांदनी) चन्द्रमा को, कीर्ति सत्सुरुष को, प्रभा सूर्य को तथा महानदी पर्वत को नहीं छोड़ती है उसी प्रकार बहुत पहले निकाली गई भी लक्ष्मी समुद्र को नहीं छोड़ रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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