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________________ १८२] प्राकृत-दीपिका [ महाराष्ट्री ५. दीसतं अहिरामं सुव्वंतं पि अविइल्सोअव्वगुणं । सुकअस्स व परिणामं उअहुज्जतं पि सासअसुहप्फल ।। १० ॥ ६. उक्ख अदुम व सेलं हिमहअकमलाअरं व लच्छिविमुक्कं । पीअमइर व चस बहुलपओसं व मुद्धचंदविरहिअं ।। ११॥ ७. पाआलोअरगहिरे महिपइरिक्कविअडे णहणिरालम्बे । तेल्लोक्के व्व महुमहं अप्पाण च्चिअ गआगआइँ करेन्तं ।। १५ ।। ५. दृश्यमानमभिरामं श्रूयमाणमप्यवितृष्णश्रोतव्यगुणम् । सुकृतस्येव परिणाममुपभुज्यमानमपि स्वाश्रयशुभ-(शाश्वतसुख)फलदम्।।१०॥ ६. उत्खात ममिव शैलं हिमाहितकमलाकरमिव लक्ष्मीविमुक्तम् । पीतमदिरमिव चषकं बहुलप्रदोषमित्र मुग्ध चन्द्रविरहितम् ॥ ११ ॥ पातालोदरगंभीरे महीप्रतिरिक्तविकटे नभोनिरालम्बे । त्रैलोक्य इव मधुमथनमात्मन्येव गतागतानि कुर्व तम् ॥ १५ ॥ ५. पुण्यकृत्यों के परिणाम के समान यह समुद्र दृष्टिगोचर होने पर भी रमणीय, सुने जाने पर भी सुनने से तृप्ति न करने वाला, [ स्नानादि के द्वारा ] उपभुज्य होते हुए भी अपने आश्रितों के लिए मुक्ताफल ( श्वेत फल-शुभ फल; अथवा शाश्वत सुख-मुक्ति ) देने वाला है। ६. उखाड़े गये वक्ष वाले पर्वत के समान, हिम से आहत कमलों वाले शोभाहीन सरोवर के समान, जिसकी मदिरा पी ली गई है ऐसे प्याले के समान तथा मनोहर चन्द्रमा के उदय से रहित अंधेरी ( कृष्णपक्ष की ) रात्रि के समान यह समुद्र है। ७. पाताल के अन्तस्तल तक गहरा ( गम्भीर ), पृथिवी के शून्य प्रदेशों में ( गुफा आदि ) में विस्तीर्ण होने से भयानक तथा आकाशस्पर्शो तरङ्गों के होने मे निरालम्ब अपने ही तीनों लोकों में गमनागमन को करते हुए विष्णु के समान समुद्र अपने में ही व्याप्त हो रहा है। भगवान विष्णु की कुक्षि में तीनों लोक ज्याप्त माने जाते हैं । यह समुद्र भी त्रिलोकव्यापी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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