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________________ १८० ] प्राकृत-दीपिका [ महाराष्ट्री ७. चंदाअवधवलाओ फुरंतदिअसरअणंतरिअसोहाओ। सोम्मे सरअस्स उरे मुत्तावलिविब्भमं वहंति णिसाओ ।। २७ ।। ८. पज्जत्तकमलगंधो महुतण्णाओ सरन्तण वकुमुअरओ। भमिरभमरोअइन्वो संचरइ सदाणसीअरो वणवाओ॥ ३१ ॥ (३) समुद्दवण्णणं' १. अह पेच्छइ रहुतणओ चडुलं दोससअदुक्खबोलेअव्वं । अमअरससारगरुअं कज्जारंभस्स जोव्वणं व समुद्दे ॥ १ ॥ ७. चन्द्रातपधवला: स्फुरदिवसरत्नान्तरितशोभा. । सौम्ये शरद उरसि मुक्तावलिविभ्रमं वहन्ति निशाः ।। २७ ॥ ८. पर्याप्तकमलगन्धो मध्वाद्रपसरन्नवकुमुदरजाः । । भ्रमभ्रमरोपजीव्यः संचरति सदानशीकरो वनवात: ।। ३१ ॥ संस्कृत-छाया ( समुद्र वर्णनम् ) १. अथ पश्यति रघुतनय श्चटुलं दोषशतदुःख व्यतिक्रमणीयम् । अमृतरससारगुरुकं कार्यारम्भस्य यौवनमिव समुद्रम् ॥ १॥ ७. कान्तिमान् दिनमणि ( सूर्य) की कान्ति से अभिभूत तथा चन्द्रज्योत्स्ना से धवलित रातें सौम्य शरद ऋतु के हृदय पर मोतियों की माला के विभ्रम को धारण करती हैं। ८. पर्याप्त कमलगन्ध से परिपूर्ण, मधु के आधिक्य से आर्द्र होकर वायू के झोंकों से बिखरे हुए कुमुदों के नवीन पराग से युक्त, भ्रमणशील भौंरों का उपजीव्य ( आश्रय) तथा वनगम के मदनल कणों से युक्त वनपवन बह रहा है। हिन्दी अनुवाद ( समुद्र वर्णन ) । १. इसके बाद ( समुद्रतट पर पहुँचने के बाद ) राम समुद्र को देखते हैं जो समुद्र चञ्चल है, सैकड़ों बाधाओं के कारण दुर्लघ्य ( दोष मकरकल्लोल आदि के बाहुल्य से दुर्लघ्य अथवा दोःशतेन-सैकड़ों बाहुओं से भी दुर्लघ्य ) है, अमृत रस एवं रत्नों ( सार ) के कारण गौरवयुक्त है एवं कार्यारम्भ के यौवन के समान है। १. प्रवरसेनकृत सेतुबन्ध के द्वितीय आश्वास से उद्धृ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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