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________________ १७४] प्राकृत दीपिका [ महाराष्ट्री (ग) राजशेखरकृत कपूरमारी से३. परुसो सक्कअबंधो पउअबंधो वि होउ सुउमारो। पुरिसमहिलाणं जेत्तिअमिहंतरं तेत्तिअमिमाणं ॥ १.७॥ (घ) जयवल्लभकृत वज्जालग्ग से४. एयं चिय नवरि फुडं हिययं गाहाण महिलियाणं च । अणरसिएहि न लब्भइ दविणं व विहीणपुण्णेहिं ॥११॥ ५. सच्छंदिया सरूवा सालंकारा य सरसउल्लावा। वरकामिणि व्व गाहा गाहिज्जंती रसं देइ ।। १२॥ ३. परुषः संस्कृतबन्धः प्राकृतबन्धस्तु भवति सुकुमारः । पुरुषमहिलयोर्यावदिहान्तरं तावदनयोः ॥ ४. एतदेव केवलं स्फुटं हृदयं गाथानां महिलाणां च । अरसिकेभ्यो न लभ्यते द्रविणमिव विहीनपुण्यः ।। ५. सच्छन्दिकाः सरूपाः सालङ्कारा च सरसोल्लापाः । वरकामिनीव गाथा गाामानां रसं ददाति ॥ ३. संस्कृत-रचनायें कठोर होती हैं और प्राकृत-रचनायें सुकुमार । पुरुषों और महिलाओं में जितना अन्तर है उतना ही इन दोनों भाषाओं में है। ४. जैसे पुण्यहीन व्यक्ति धन को प्राप्त नहीं करते हैं उसी प्रकार अरसिक जन महिलाओं के हृदय को तथा प्राकृत की गाथाओं के गूढार्थ को नहीं जान पाते हैं । अर्थात् सरस जन ही वहाँ तक पहुंचते हैं। ५. छन्दोबद्ध ( इच्छानुकूल ), योग्य वृत्तान्त से पूर्ण ( लावण्ययुक्त ), उपमादि अलङ्कारों से युक्त (हारादि आभूषणों से अलङ्कत ) तथा सरस वचनों से युक्त (प्रेमयुक्त वचन बोलनेवाली) श्रेष्ठ कामिनी की तरह प्राकृत-गाथायें अवगाहन ( पठन, आलिङ्गन ) करने पर सुख ( रस ) देती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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