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________________ भाग ३ : संकलन ( महाराष्ट्री प्राकृत ) ( १ ) पउअकव्वमाहत्तं ( क ) हालकृत 'गाथासप्तशती' से ९. अमिअं पउअकव्वं पढिउं सोउं अ जे ण आणंति । कामस्स तत्त तत्ति कुणंति ते कह ण ( स्व ) अज्ञातक विकृत - २. पाइयकव्वुल्लावे पडिवयणं सक्कएण सो कुसुमसत्थरं पत्थरेणं अबुहो लज्जंति ॥ १.२ ॥ जो देइ । विणासेइ ॥ संस्कृत-छाया ( प्राकृत काव्यमाहात्म्यम् ) १. अमृतं प्राकृत काव्यं पठितुं श्रोतुं च ये न जानन्ति । कामस्य तत्त्वचिन्तां कुर्वन्ति ते कथं न लज्जन्ते ॥ २. प्राकृत काव्योल्लापे प्रतिवचनं संस्कृतेन यो ददाति । सः कुसुमसंस्तरं प्रस्तरेण अबुधो विनाशयति ॥ Jain Education International हिन्दी अनुवाद ( प्राकृत काव्य का महत्व ) १. अमृत के समान प्राकृत काव्य को जो न तो पढ़ना जानते हैं और न सुनना जानते हैं वे कामतत्त्व ( कामशास्त्र ) की चर्चा करते हुए लज्जित क्यों नहीं होते हैं ? २. जो प्राकृत काव्य के उत्तर में संस्कृत के द्वारा प्रतिवचन ( प्रत्युत्तर ) देता है वह मूर्ख व्यक्ति फूलों की शय्या को पत्थर के प्रहार से नष्ट कर देता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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