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________________ विविध प्राकृत भाषायें ] [ १३१ चीनी तुर्किस्तान के खरोष्ट्री शिलालेखों में तथा कुवलयमाला में पैशाची की विशेषतायें देखी जा सकती हैं । यह भाषा संस्कृत और पालि के अतिनिकट है । वररुचि ने शौरसेनी को इसकी प्रकृति मानकर अनुशासन किया है । मार्कण्डेय ने देश-भेद से पैशाची को कैकय, शौरसेन और पाञ्चाल इन तीन भागों में विभक्त किया है । प्रमुख विशेषतायें'. ―― भाग १ : व्याकरण (१) > -- गुणेन > गुनेन, तरुणी > तलुनी, गुणगणयुक्तः - गुनगनयुतो । (२) ल > ळ - - कमलम् > कमळं; लोकः > ळोको, जलम् > जळं, सीलम् > सीळं । (३) ज्ञ, न्य, ण्य > ञ्ञ - प्रज्ञा > पञा, विज्ञानम् > विञानं ज्ञानम् >ञानं, सर्वज्ञः > सव्वज्ञ, कन्या > कञ्ञा, पुण्य > पुञ । ( अपवाद - 'राजन्' शब्द के रूपों में 'ज्ञ' का 'चित्र' विकल्प से होता है । जैसे - राज्ञो > राचिञो ञ, राज्ञा लपितम् > राचित्रा रञ्जा वा लपितं ) । " (४) श, ष, स > स -- शोभनम् > सोभनं विषमः > विसमो । (५) त, दत - पार्वती >पव्वती, भगवती > भगवती, दामोदरः >तामोतरो, रमताम् > तु भवतु हो > होतु, सदनम् > सतनं प्रदेश: > पतेसो, वदनकम् > वतनकं । १ ' 1 (६) कहीं-कहीं आदेश होते हैं - > रिअ, स्न > सन सिन, ष्ट > सट । जैसेभार्या भारिया, स्नानं > सनानं, स्नेहः > सनेहो, कष्टम् > कसटं, स्नातम् > सिनातं । (७) स्वरों के मध्यवर्ती क ग आदि का लोप नहीं होता है । जैसे - वचनम् > वचनं, भगवती > भगवती । Jain Education International (८) ख, भ, थ > ह में नहीं बदलते हैं 1 जैसे - शाखा > साखा, शपथ > संपथ, प्रतिभास: > पतिभासो । १. हे० ८.४.३०३-३२४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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